________________
अष्टम अध्याय
[१३१ संशय मिथ्यादर्शन- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र ये मोक्षके मार्ग है अथवा नहीं, इस प्रकारसे चलायमान श्रद्धानको संशय मिथ्यादर्शन कहते हैं।
वैनयिक मिथ्यादर्शन- सब प्रकारके देवोंको तथा सब प्रकारके मतोंको समान मानना वैनयिक मिथ्यादर्शन है।
अज्ञान मिथ्यादर्शन- हिताहितकी परीक्षा न करके श्रद्धान करना अज्ञान मिथ्यात्व है।
___ अविरति- छह ' कायके जीवोंकी हिंसाके त्याग न करने और ५ इन्द्रिय तथा मनके विषयोंमें प्रवृति करनेको अविरति कहते हैं। इसके बारह भेद हैं-पृथ्वीकायिकाविरति, जलकायिकाविरति इत्यादि।
बन्धके हेतु मुख्य रुपसे ४ है-मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग । परन्तु यहां गुणस्थानोंका क्रम ध्यानमें रखते हुए कषायको दो भागोमें बांटा गया है-प्रमाद और कषाय। इसलिये यहां बन्धके पांच हेतु बतलाये हैं।
प्रमाद- ५ समिति, ३ गुप्ति, ८ शुद्धि - १० धर्म इत्यादि अच्छे कार्यों में उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति न करनेको प्रमाद कहते हैं।'
इसके १५ भेद हैं। कषाय- इसके २५ भेद हैं।
योग- इसके १५ भेद हैं-४ मनोयोग, ४ वचनयोग और ७ काययोग।
नोट- ये मिथ्यादर्शन आदि, सम्पूर्ण तथा पृथक् पृथक् बन्धके कारण हैं । अर्थात्-किसीके पांचों ही बन्धके कारण हैं, किसीके अवरित
1. पांच स्थावर और त्रस ये छह कायके जीव है। 2. १.-भावशुद्धि, २-कायशुद्धि, ३-विनयशुद्धि, ४-ईर्यापथशुद्धि, ५- भैक्ष्यशुद्धि, ६-प्रतिष्ठापनशुद्धि, ७- शयनासनशुद्धि, ८-वाक्यशुद्धि। 3. प्रमाद और कषायमें समान्य विशेषका अन्तर है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org