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पष्ठ अध्याय
[ १९
अर्थ- योग वक्रता और विसंवादनसे विपरीत अर्थात् योगोंकी सरलता और अन्यथा प्रवृतिका अभाव ये शुभ नामकर्मके आस्रव हैं ॥ २३ ॥
दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नताशीलव्रतेष्वनतिचारो
ऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौशक्तिततस्त्यागतपसीसाधुसमाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थंकरत्वस्य ॥ २४॥
अर्थ- १- दर्शनविशुद्धि-पच्चीस दोषरहित निर्मल' सम्यग्दर्शन, २ - विनयसम्पन्नता - रत्नत्रय तथा उनके धारकोंकी विनय करना, ३शीलव्रतेष्वनतिचार - अहिंसादि व्रत और उनके रक्षक क्रोधत्याग आदि शीलोंमें विशेष प्रवृत्ति, ४-५ अभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ-निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखना और संसारसे भयभीत होना, ६-७ शक्तितस्त्याग तपसीयथाशक्ति दान देना और उपवासादि तप करना, ८ - साधुसमाधिसाधुओंके विघ्न आदिको दूर करना, ९ - वैयावृतकरणम् - रोगी तथा बालवृद्ध मुनियों की सेवा करना, १०-११-१२-१३अर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्ति अरहन्त भगवानकी भक्ति करना, दीक्षा देने वाले आचार्योंकी भक्ति करना, उपाध्यायोंकी भक्ति करना, शास्त्रोंकी भक्ति करना, १४ - आवश्यकापरिहाणि-सामायिक आदि छह आवश्यक क्रियाओंमें हानि नहीं करना, १५ - मार्गप्रभावना- जैनधर्मकी प्रभावना
1. यहाँ दर्शनविशुद्धिमं तात्पर्य अपाय विचय धमंध्यानके मध्यस्थित मनुष्यके जो लोककल्याणकी सातिशय भावना होती है उससे है। मनुष्य शुभ राग ही तीर्थकर प्रकृतिका आखत है !
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