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पंचम अध्याय
[ ८५ लोकाकाश- आकाशके जितने हिस्सेमें जीव आदि छहों द्रव्य पाए जावें उतने हिस्सेको लोकाकाश कहते है। बाकी हिस्सा अलोकाकाश कहलाता है ॥ १२ ॥
धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३॥
अर्थ- धर्म और अधर्म द्रव्यका अवगाह तिलमें तेलकी तरह समस्त लोकाकाशमें है ॥ १३ ॥
एकप्रदेशादिषु भाज्य: पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥
अर्थ - (पुद्गलानाम् ) पुद्गल द्रव्यका अवगाह (एकप्रदेशादिषु ) लोकाकाशके एक प्रदेशको लेकर संख्यात असंख्यात प्रदेशों में (भाज्य: ) विभाग करने योग्य हैं ॥ १४ ॥
असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥ १५ ॥
अर्थ - ( जीवानाम् ) जीवोंका अवगाह (असंख्येयभागादिषु ) लोकाकाशके असंख्यातवें भागसे लेकर सम्पूर्ण लोकक्षेत्र में है ॥ १५ ॥ प्रश्न- जबकि एक जीव द्रव्य असंख्यात प्रदेशी है तब वह लोकके असंख्यातवें भागमे कैसे रह सकता है ? समाधान --
प्रदेशसंहारविसर्पाभ्याम् प्रदीपवत् ॥ १६ ॥
अर्थ - (प्रदीपवत् ) दीपकके प्रकाशकी तरह ( प्रदेशसंहार विसर्पाभ्यां ) प्रदेशोके संकोच और विस्तारके द्वारा जीव लोकाकाशके असंख्यातवें आदि भागोमें रहता है अर्थात् जिस तरह एक बड़े मकानमें दीपकके रख देनेसे उसका प्रकाश समस्त मकानमे फैल जाता है और उसी दीपकको एक छोटेसे बर्तनके भीतर रख देनेसे उसका प्रकाश उसीमें संकुचित होकर रह जाता है, उसी तरह जीव भी जितना बड़ा या छोटा शरीर पाता है उसमें उतना ही विस्तृत या संकुचित होकर रह जाता है । परन्तु
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