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द्वितीय अध्याय
[ २७ उपशमसे - जो सम्यक्त्व होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं ।
औपशमिक चारित्र- अप्रत्याख्यानावरणादि चारित्रमोहनीयकी २१ प्रकृतियोंके उपशमसे जो चारित्र होता है उसे औपशमिक चारित्रकहते हैं ॥३॥
क्षायिकभावके नौ भेदज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणिच॥४॥
अर्थ- केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिक भोग, क्षायिकउपभोग, क्षायिकवीर्य तथा 'च' कारसे क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिकचारित्र ये नौ क्षायिकभावके भेद हैं।'
केवलज्ञान-जोज्ञानावरणके क्षयसेहो।केवलदर्शन-दर्शनावरणके क्षयसे हो। क्षायिकदान आदि पांच भाव-अन्तराय कर्मसे ५ भेदोंके क्षयसे होते हैं।
क्षायिक सम्यक्त्व-जो ऊपर कही हुई सात प्रकृतियोंके क्षयसे हो। क्षायिकचारित्र-जो ऊपर कही हुई २१ प्रकृतियोंके क्षयसे हो।
क्षयोपशमिकभावके अठारह भेदज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥५॥
अर्थ-(ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रिपंचभेदाः) मतिश्रुत अवधि मनःपर्यय ये चार ज्ञान, कुमति कुश्रुत कुअवधि ये तीन अज्ञान, चक्षुर्दर्शन,
2. अनादि मिथ्याद्दष्टि और किसी किसी सादि मिथ्याद्दष्टिके अनन्तानुबन्धीको ४ और मिथ्यात्व १ इन पांच प्रकृतियोंके उपशमसे होता है। 3. इन नौं भावोंको नौ लब्धियां भी कहते है।
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