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होते हैं।
चतुर्थ अध्याय
देवोंमें इन्द्रकी व्यवस्था पूर्वयोर्द्वन्द्राः ॥ ६ ॥
अर्थ- भवनवासी और व्यन्तरोंमें प्रत्येक भेद में दो दो इन्द्र
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भावार्थ- भवनवासीयोंके दश भेदों में बीस और व्यन्तरों के आठ भेदों में सोलह इन्द्र होते हैं तथा इतने ही प्रतीन्द्र होते हैं ॥ ६ ॥ देवोंमें स्त्रीसुखका वर्णनकायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ७ ॥
अर्थ- [ आ ऐशानात् ] ऐशान स्वर्ग पर्यन्त के देव अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और पहले दूसरे स्वर्ग के देव [ कायप्रवीचाराः ] मनुष्यों के समान शरीर से काम सेवन करते हैं। प्रवीचार= कामसेवन ॥ ७ ॥
शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनः प्रवीचाराः ॥ ८ ॥
अर्थ- शेष स्वर्ग के देव, देवियों के स्पर्श से, रूप देखने से शब्द सुनने से और मनके विचारने से कामसेवन करते हैं। अर्थात् तीसरे और चौथे स्वर्ग के देव देवाङ्गनाओं के स्पर्श से पाँचवें, छठवें, सातवें, आठवें, स्वर्ग के देव देवियों के रूप देखने से, नौवें, दशवें, ग्यारहवें और बारहवें स्वर्ग के देव देवियों के शब्द सुननेसे तथा तेरहवे, चौदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें स्वर्ग के देव देवाङ्गनाओं के मनके विचारने मात्र से तृप्त हो जाते हैं- उनकी कामेच्छा शांत हो जाती है ॥ ८ ॥
परेऽप्रवीचारा ॥ ९॥
अर्थ- सोलहवें स्वर्ग से आगे देव काम सेवनसे रहित होते हैं । इनके कामेच्छा ही उत्पन्न नहीं होती, तब उनके प्रतिकारसे क्या
प्रयोजन ? ।। ९ ।।
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