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माक्षशास्त्र पर्टीक १०. निसृत-बाहर निकले हुए प्रकट पदार्थोका ज्ञान होना। ११. उक्त-शब्द सुननेके बाद ज्ञान होना ।
१२. अध्रुव-जो क्षण क्षण हीन अधिक होता रहे उसे अध्रुव ज्ञान कहते हैं ॥ १६॥
अर्थस्य ॥१७॥ अर्थ- उपर कहे हुए बहु आदि बारह भेद पदार्थ-द्रव्यके हैं अर्थात् - बहु आदि विशेषण विशिष्ट पदार्थके ही अवग्रह आदि ज्ञान होते हैं ॥१७॥
अवग्रह ज्ञानमें विशेषताव्यञ्जनस्यावग्रहः ॥१८॥
अर्थ- ( व्यञ्जनस्य) प्रकट रूप शब्दादि पदार्थोका ( अवग्रहः) सिर्फ अवग्रह ज्ञान होता है। ईहादिक तीन ज्ञान नहीं होते।
भावार्थ- अवग्रहके दो भेद हैं-१-व्यञ्जनावग्रह और २-अर्थावग्रह।
व्यञ्जनावग्रह-अव्यक्त-अप्रकट पदार्थके अवग्रहको व्यञ्जनावग्रह कहते हैं।
अर्थावग्रह- व्यक्त-प्रकट पदार्थके अवग्रहको अर्थावग्रह कहते हैं ॥१८॥
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१९॥
अर्थ- ( चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ) नेत्र और मनसे व्यञ्जनावग्रह (न)
1.किसीका मत है की चक्षु आदि इन्द्रियां, रूप. आदि गुणोंको ही जानती है क्योंकि इन्द्रियोंका सन्निकर्ष (सम्बन्ध) उन्हींक साथ होता है । उस मतका खण्डन करनेके लिये ही ग्रंथकाने 'अर्थम्य ' यह पत्र लिखा है । इससे सिद्ध होता है कि इन्द्रियोंका सम्बन्ध पदाथक ही साथ होता है. केवल गुणक साथ नहीं होता।
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