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प्रथम अध्याय
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धारणा - अवायसे निश्चय किये हुए पदार्थको कालान्तरमें नहीं भूलना धारणा है ॥ १५ ॥
अवग्रह आदिके विषयभूत पदार्थबहुबहुविधक्षिप्रानिः सृतानुक्तध्रुवाणांसेतराणां ॥१६ ॥
अर्थ- (सेतराणाम्- बहुबहुविधक्षिप्रानिः सृतानुक्तधुवाणाम् ) अपने उल्टे भेदों सहित बहु, आदि अर्थात् बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिः सृत, अनुक्त ध्रुव और इनसे उल्टे एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त तथा अध्रुव इन बारह प्रकारके पदार्थोंका अवग्रह ईहादिरूप ज्ञान होता है ।
९. बहु ' - एकसाथ बहुत पदार्थोंका अवग्रहादि होना । जैसेगेंहूकी राशि देखनेसे बहुतसे गेंहूओंका ज्ञान ।
२. बहुविध - बहुत प्रकारके पदार्थोंका अवग्रहादि होना । जैसेगेंहू, चना, चांवल आदि कई पदार्थोंका ज्ञान ।
३. क्षिप्र - शीघ्रतासे पदार्थका ज्ञान होना ।
४. अनिः सृत - एकदेशके ज्ञानसे सर्वदेशका ज्ञान होना- जैसेबाहर निकली हुई सूंड देखकर जलमें डूबे हुए पूरे हाथीका ज्ञान होना । ५. अनुक्त- वचनसे कहे बिना अभिप्रायसे जान लेना । जैसे- मुंहकी
सूरत तथा हाथ आदिके इशारेसे प्यासे मनुष्यका ज्ञान होना ।
६. ध्रुव - बहुत कालतक जैसाका तैसा ज्ञान होते रहना । ७. एक- अल्प वा एक पदार्थका ज्ञान ।
८. एकविध - एक प्रकारकी वस्तुओंका ज्ञान होना एकविध ज्ञान है जैसे- एक, सद्दश गेहुँओंका ज्ञान ।
९. अक्षिप्र-चिरग्रहण - किसी पदार्थको धीरे धीरे बहुत समयमें जानना ।
1. यद्यपि बहु आदि बारह प्रकारके पदार्थ है तथापि सुविधाकी दृष्टिसे यहां उनका ज्ञानपरक लक्षण लिखा गया है।
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