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________________ १२] माक्षशास्त्र पर्टीक १०. निसृत-बाहर निकले हुए प्रकट पदार्थोका ज्ञान होना। ११. उक्त-शब्द सुननेके बाद ज्ञान होना । १२. अध्रुव-जो क्षण क्षण हीन अधिक होता रहे उसे अध्रुव ज्ञान कहते हैं ॥ १६॥ अर्थस्य ॥१७॥ अर्थ- उपर कहे हुए बहु आदि बारह भेद पदार्थ-द्रव्यके हैं अर्थात् - बहु आदि विशेषण विशिष्ट पदार्थके ही अवग्रह आदि ज्ञान होते हैं ॥१७॥ अवग्रह ज्ञानमें विशेषताव्यञ्जनस्यावग्रहः ॥१८॥ अर्थ- ( व्यञ्जनस्य) प्रकट रूप शब्दादि पदार्थोका ( अवग्रहः) सिर्फ अवग्रह ज्ञान होता है। ईहादिक तीन ज्ञान नहीं होते। भावार्थ- अवग्रहके दो भेद हैं-१-व्यञ्जनावग्रह और २-अर्थावग्रह। व्यञ्जनावग्रह-अव्यक्त-अप्रकट पदार्थके अवग्रहको व्यञ्जनावग्रह कहते हैं। अर्थावग्रह- व्यक्त-प्रकट पदार्थके अवग्रहको अर्थावग्रह कहते हैं ॥१८॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१९॥ अर्थ- ( चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ) नेत्र और मनसे व्यञ्जनावग्रह (न) 1.किसीका मत है की चक्षु आदि इन्द्रियां, रूप. आदि गुणोंको ही जानती है क्योंकि इन्द्रियोंका सन्निकर्ष (सम्बन्ध) उन्हींक साथ होता है । उस मतका खण्डन करनेके लिये ही ग्रंथकाने 'अर्थम्य ' यह पत्र लिखा है । इससे सिद्ध होता है कि इन्द्रियोंका सम्बन्ध पदाथक ही साथ होता है. केवल गुणक साथ नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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