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प्रथम अध्याय नहीं होता हैं ' ॥१९॥ श्रुतज्ञानका वर्णन, श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिका क्रम और भेदश्रुतं मतिपूर्वंद्वयनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥
अर्थ- ( श्रुतम् ) श्रुतज्ञान ( मतिपूर्वम् ' ) मतिज्ञानर्पूवक होता है अर्थात् मतिज्ञान उसका पूर्व कारण है। और वह श्रुतज्ञान (द्वयनेकद्वादश: भेदम् ) दो, अनेक तथा बारह भेदवाला है।
भावार्थ- श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है। उसके दो भेद हैं १-अङ्ग बाह्य और अङ्गप्रविष्ट। उनमेंसे अङ्गबाह्यके अनेक भेद हैं और अङ्ग प्रविष्टके १-आचारांग, २-सूत्रकृताङ्ग, ३-स्थानाङ्ग, ४-समवायाङ्ग, ५-व्याख्याप्रज्ञप्ति अङ्ग, ६-ज्ञातृधर्मकथाङ्ग, ७-उपासकाध्ययनाङ्ग, ८-अंतकृद्दशाङ्ग, ९अनुत्तरोपपादिकदशाङ्ग, १०-प्रश्नव्याकरणाङ, ११ विपाकसूत्राङ्ग, और १२-द्दष्टिप्रवादाङ्ग, ये बारह भेद हैं। इनमेंसे द्दष्टिप्रवाद नामक बारहवें अंगके ५ भेद हैं-१-परिकर्म, २-सूत्र, ३-प्रथमानुयोग, ४-पूर्वगत और ५-चूलिका। परिकर्म५भेदहैं।१-व्याख्याप्रज्ञप्ति, २-द्वीपसागरप्रज्ञप्ति,३-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४सूर्यप्रज्ञप्ति, और ५-चंद्रप्रज्ञप्ति। चूलिकाके ५ भेद हैं-१-जलगता, २स्थलगता, ३-मायागता, ४-आकाशगता और ५-रूपगता। सत्रगत और प्रथमानुयोगके एक २ ही भेद हैं। पूर्वगतके १४ भेद है- १- उत्पाद, २अग्रायणी, ३-वीर्यानुवाद,४-अस्तिनास्तिप्रवाद,५-ज्ञानप्रवाद,६-सत्यप्रवाद, ७-आत्मप्रवाद, ८-कर्मप्रवाद, ९-प्रत्याख्यान, १०-विद्यानुवाद, ११कल्याणानुवाद, १२-प्राणावायप्रवाद,१३-क्रियाविशाल और १४-लोकबिन्दु। इन पत्रके पदोंका प्रमाण तथा विषय वगैरह राजवार्तिक आदि उच्च ग्रन्थोंसे जानना चाहिये। .. बहु आदि १२ पदार्थीको अवग्रह आदि ४ प्रकारके ज्ञान. पांच इन्द्रियां और मन इन छहकी सहायतासे होते है, इसलिये १२४४-४८४६-२८८ भेद हुए। इनमें व्यजनावग्रहक १२४४-४८ भेद जोड़नस कुल २८८-४८३३६ मतिज्ञानक प्रभेद होते हैं। 2. श्रृत ज्ञान मतिज्ञान के बाद होता है । यहाँ पर्वका अर्थ कारण भी होता है. इसलिये 'मतिपूर्वक' इस पदका अर्थ 'मतिज्ञान है कारण जिसका' यह भी हो सकता है। 'मति: पूर्वमस्य मतिपर्व मतिकारणं इत्यर्थ: ।'
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