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“जाए सद्धाए निक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं। तमेव अणुपालिज्जा, गुणे आयरिय समए॥”
श्री दसवै. अ. ८ गाथा ६१ साधु जिस श्रद्धा भावना से आपूरित होकर सांसारिक कीचड़ का त्याग करता है। गुणस्थान की ऊँचाई को प्राप्त करने व मोक्षमार्ग को पाने के लिए प्रयासशील होता है उसे संसार का आकर्षण क्षणभंगुर दष्टिगोचर होने लगता है अतः वे यावज्जीवन उत्कष्ट भावना ही आचरित व चरितार्थ करने हेत प्रयास हो जाते हैं क्योंकि मोक्ष के राही के लिए तीन सीढ़ी की साधना करना अत्यावश्यक है अन्यथा जीवन में ज्ञान है दर्शन नहीं या दर्शन है तो चारित्र नहीं तो लक्ष्य तक पहुँच पाना नामुमकिन है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र का सारांश जीवन की दैनंदिनी दिनचर्या पर उतरता है। वह संकेत करता है उसकी साधना पद्धति की ओर। किसी कवि ने ठीक ही कहा है -
साध्य उसी को सधेगा, जो संयम में रमता हो। आराध्य उसी को मिलेगा, जिसमें पूर्ण क्षमता हो। प्रशंसा को सुनकर, खुश कौन नहीं होता किंतु –
निंदा को वही सुन सकेगा, जिसके दिल में समता हो। आज इक्कीसवीं सदी की ओर पदार्पण करने वाले मानव के पास क्या नहीं है, ज्ञान है, गुण है, बुद्धि है, यश व ख्याति है, आलंकारों की भी कमी नहीं है, पद्धतियाँ हैं, तर्क हैं, जिज्ञासा है, चिंतन है इन सभी तत्वों के होते हुए भी उसके पास कुछ नहीं है क्योंकि समाधान नहीं है। प्रश्न उठता है समाधान क्यों नहीं है? चिंतन बिंदु के निष्कर्ष में यही निकलता है कि सहिष्णुता व समता का अभाव है या यों कहें समाधान की कमी संस्कारों के अभाव से है। इस समता को जीवन में उतारने के लिए पूजनीया महासती जी के प्रेरणादायी जीवन को दृष्टिपात करना अत्यावश्यक है। जीवन का अंतिम लक्ष्य मानवजीवन में सरलता से होना चाहिए। वह सरलता संस्कारों के अभाव में आ ही नहीं सकती। सरलता के जीवन में आ जाने से मानव की मानवीयता कोमलता से सुसज्जित हो जाती है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट है -
“धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ।" तात्पर्य नम्रता, शुद्धता तथा सरलता के निवास के अंतर्गत ही धर्म का वास स्वतः हो जाता है। महासतियाँ जी के संयमित जीवन के प्रत्येक अंश में धर्म के साथ सरलता टपकती रहती थी। उनके जीवन के किसी भी पहलु को लें, ज्ञान में, चारित्र में, विनम्रता में किसी भी बात में जागरूकता हरदम दिखाई देती रही। पूजनीया सतियाँ जी कानकंवर जी व चंपाकंवर जी के जीवन में क्षमा, दया, शांति, वीरता, धीरता जैसे अनेकों महत्वपूर्ण गुण विद्यमान थे। उनकी इच्छाशक्ति तो इतनी मजबूत थी कि उसी का परिणाम था कि उनका जीवन वर्षों से पूर्णरूपेण संयमित रहने में प्रयासशील रहा तथा उनका पार्थिव शरीर तो नहीं रहा लेकिन उनकी चारित्रिक चमक आज भी कौंध रही है। भविष्य में भी कौंधती रहेगी। चारित्र्य तपस्या से ही बलिष्ठ होता है।
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