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रघुनाथ जी महाराज उग्र तपस्वी थे। साध्वी श्री उमरावकुंवर जी 'अर्चना' के अनुसार उन्होंने अपने साधनामय ६० वर्षों के जीवन में लगभग ३ वर्ष से भी कम आहार किया, ५७ वर्ष करीब तपस्या
में बिताए ।
संवत् १८४६ की माघ शुक्ला एकादशी के दिन मेड़ताशहर में देवलोकवासी हुए ।
आचार्य भूधर जी म. के कालधर्म प्राप्त कर लेने पर उसी वर्ष (संवत् १८०४) सोजत श्री संघ म. को आचार्य पद प्रदान किया।
ने श्री रघुनाथ
आपके लघु 'गुरुभ्राता' थे-पूज्य श्री जयमल जी महाराज, जिनके उत्कृष्ट प्रभाव ने एक नए सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव किया, 'श्री जयमल जैन संप्रदाय' ।
आचार्य श्री जयमल्ल जी महाराज
विक्रम संवत १७६५ भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी के दिन मेड़ताशहर के सन्निकट लाम्बिया गांव में समदड़िया मेहता गोत्रीय बीसा ओसवाल मोहनदास जी के घर उनकी पत्नी महिमादेवी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। मेहता जी के इस पुत्र का नाम था 'जयमल'
जयमल की का बाल्यकाल बड़े ही सुखद और शांत वातावरण में बीता। बाईसवें वर्ष में प्रवेश हो ही रहा था कि जयमल जी का विवाह 'शेरसिंह जी की रीयां' के प्रधान कामदार श्री शिवकरण जी मेहता की सुपुत्री लक्ष्मीदेवी (लाछां दे) के साथ कर दिया गया। सामाजिक विधानानुसार जयमल जी का विवाह तो हो गया था पर मुकलावा अभी होना था। दीपावली के बाद रीयां से शिवकरण जी का पत्र आया तो जयमल जी को मुकलावे पर रीयां भेजने की तैयारियां होने लगी। रिडमल जी ने कहा- 'हो सकता है वहां जयमल को १५-२० दिन के लिए रोक भी लें, अतः दुकान के लिए आवश्यक वस्तुओं के स्टाक की खरीदी पहले ही करवा ली जाए और रीयां बाद में भेजा जाए' ।
यही हुआ। जयमलजी अपने कुछ साथियों के साथ व्यावसायिक कार्य हेतु मेड़ता गए । जिस दिन वे वहां पहुंचे, वह कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा का दिन था। उस वर्ष मेड़ता में आचार्य श्री भूधर जी महाराज का वर्षावास था कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा उतरती चौमासी कहलाती हैं। वर्षावास की समाप्ति का समय एकदम निकट आ गया, इसलिए जैन - जनता अपना कारोबार छोड़ कर उस दिन आचार्य श्री के अंतिम प्रवचन- संदेश को सुनने के लिए अधिकतम संख्या में जैन स्थानक में गई हुई थी। बाजार लगभग बंद-सा था। जयमल जी को जब यह जानकारी हुई तो समय के सदुपयोग की दृष्टि से वे भी अपने साथियों सहित आचार्य श्री भूधर जी महाराज का प्रवचन सुनने के लिए स्थानक में जा पहुंचे। प्रवचन का विषय था- ब्रह्मचर्य । ब्रहचर्य के प्रसंग पर सेठ सुदर्शन का इतिवृत्त चल रहा था। आचार्य श्री के कहने का अपना निराला ढंग था, शैली प्रभावोत्पादक थी । श्रोता मंत्र-मुग्ध हो सुन रहे थे। जयमल जी ने अथ से इति तक सेठ सुदर्शन की बात सुनी। वैराग्य से छलछलाते हुए पावन प्रवचन को सुनकर जयमल जी के मन में वैराग्य भावना अठखेलियां करने लगी। उन्होंने उसी क्षण आजीवन ब्रह्राचर्य व्रत स्वीकार कर एक महान् साधक का आदर्श उपस्थित किया । ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लेने मात्र से ही उन्हें संतोष कहां था ? उनका मन - पंछी तो साधना के अनन्त गगन में विचरण करना चाहता था। एक विशिष्ट अध्यात्म - योगी बनने का दृढ़ संकल्प उठ रहा था हृदय में परन्तु उसके लिए बाधक थी मां की ममता, पिता का प्यार,
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