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यह सत्य है कि मृत्यु के सम्मुख विवश होकर मानव अपने प्यारे से प्यारे व्यक्ति को रोक नहीं पाता, गर घर से जीवित विदा करते समय मानव का मोह इस सीमा तक जोर लगाता है कि वह हर संभव प्रयास करके उसे ममत्व के बंधन से जकड़ने का प्रयास करता है। गुजराती में एक कहावत है। कहावत अपने पुत्र-पुत्री के संबंध में है- “डिकरो जम ने देवाय पण जति ने न देवाय ।” अर्थात् यमराज के समक्ष आने पर अपने प्रिय से प्रिय व्यक्ति को भी नहीं रोक सकते, यम को देने के लिये तैयार हो जाते हैं परन्तु जब कोई साधु बनना चाहता है तो उसे जति अथवा मुनिराज को नहीं देते। यमराज के समक्ष व्यक्ति विवश हो जाता है और मुनिराज के समक्ष वैसी विवशता नहीं होती। संसार की बड़ी विचित्र दशा है।
दीक्षा की अनुमति- मनुष्य संकल्प-विकल्पों का पुतला है। किन्तु अधैर्य की अधिकता से वह कृत संकल्पी नहीं बन सकता। थोड़ी सी कठिनाई उसके संकल्पों के महल को गिरा कर लक्ष्य तक पहुंचने में सफल नहीं होने देती। जबकि दृढ़ संकल्प से एक दिन असाध्य कार्य भी साध्य बन जाता है। सत्संकल्पों पर दृढ़तापूर्वक डटे रहने वाले व्यक्ति के मानस से एक प्रकार की विद्युत तरंगें निकलती हैं, जिसका प्रभाव आसपास के वातावरण पर पड़े बिना नहीं रहता। ऐसे दृढ़ चेता मनस्वी की सहायता प्रकृति स्वयं करती है।
सत्संकल्पों के समक्ष मिथ्या मोह टिक न सका। मुक्ति मार्ग से संसार परास्त हो गया। यह थी असंयम पर संयम की विजय, असत्य पर सत्य का वर्चस्व । चम्पाकुमारी की तीव्र भावना को देखकर अंत में माता-पिता ने उसे संयमव्रत अंगीकार करने की अनुमति दे ही दी। जैसे ही अनुमति मिली चम्पाकुमारी का मन मयूर असीम आनन्द से भर गया। अनुमति के अभाव में उदास रहने वाला चेहरा खिल उठा। आनंद ही आनंद भर गया वातावरण में।
दीक्षोत्सव- आध्यात्मिक जीवनोत्थान का प्रथम सोपान दीक्षा है। यही वह यात्रारम्भ है जिसका चरण लक्ष्य मोक्ष है, जिससे घोर चिन्ताओं और क्लेष से मुक्ति और उद्वेगहीन परमशांति का लाभ संभव होता है। यह गुरुजनों का वह प्रसादपूर्ण आशीर्वाद है जो पारलौकिक पहचान ही नहीं दिलाता वरन् इहलौकिक बंधनों, व्यवधानों को भी निर्मूल कर देता है। दीक्षा हैं जीवन का परिवर्तन ।
जिसके अन्तरमन में मोक्ष की कामना का तीव्रतम स्वरूप हो और उसी की प्राप्ति हेतु साधनारत
कल्प के साथ वीतरागी हो जाने की दढ अभिलाषा का वहन करने वाला ही यथार्थ में दीक्षार्थी हो सकता है। दीक्षा का प्रयोजन है अचंचल मन से मुक्ति मार्ग पर सतत् गतिशीलता का शुभारम्भ । यही यात्रा प्रव्रजन है और यही यात्री परिव्राजक । संयम इस यात्रा का पाथेय है और संयमशील वही हो सकता है जिसके मन में आधि-व्याधि-उपाधि के भावों ने स्वयं हट कर समाधि को अपना स्थान दे दिया हो।
दीक्षा की सार्थकता इसी में है कि वह साधना के पथ को ज्योतिर्मय कर दे। दीक्षा दीप प्रज्वलित होकर इस महती भूमिका निर्वाह में सक्षम तभी हो सकता है जब उसमें वैराग्य की वर्तिका और विवेक का तोल होगा। दीक्षा दीप अपनी इस सार्थकता के अभाव में उपेक्षणीय और क्रांतिहीन लघुमृत्तिका पात्र के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
जब वैराग्यवती चम्पाकुमारी की दीक्षाव्रत अंगीकार करने की बात कुचेरा वासियों को विदित हुई। तो वहाँ का जनमानस आनंदित हो उठा। एक नवीन उत्साह का संचार हो गया कुचेरा में। दीक्षोत्सव का शुभ मुहर्त निश्चित हो गया और उसके साथ ही दीक्षोत्सव की तैयारियां भी खुले दिल
होने लगी। वैराग्यवती चम्पाकुमारी की प्रशंसा चारों ओर होने लगी। आस पास के ग्राम नगरी में भी इस दीक्षोत्सव के समाचार कानों-कान प्रसारित हो गए। वाद्य यंत्र गूंज उठे और मंगल गीतों की स्वर लहरियां भी फूट पड़ी।
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होने के
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