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सबकों जीवन देने वाली मौत भी तुझसे हारी है।" कतिपय लोगों ने नारी के महत्व को न समझ कर उस पर व्यंग्य किया है। किसी ने यह कहा- “नारी की झाई परत अंधा होत भुजंग” तो किसी ने उसकी तुलना ढोल से करते हुए कहा - “शूद्र गंवार ढोल पशु नारी ये सब ताड़न के अधिकारी" अंग्रेजी के एक लेखक के सिर पर तो यह जादू कुछ अधिक ही चढ़कर बोला - “A dog, a wife and walrut tree more you beat them better they be"
कुछ लोगों ने नारी को विष की बेलड़ी, कलह की जड़ कहकर उसकी उपेक्षा की है। उन्होंने नारी के उज्ज्वल रूप को नहीं देखा। वह युद्ध की ज्वाला नहीं, शक्ति की अमृतवर्षा है। वह अन्धकार में प्रकाश किरण है। उसने अपने बुद्धि, चातुर्य और आत्मविश्वास से शूले भटके जीवन राहियों को सही दिशा दर्शन दिया। दुराचार के सघन अन्धकार में गुमराह बने व्यक्तियों को सदाचार की सही राह बतायी।
जैन धर्म नारी के सामाजिक महत्व से भी आंखें मूंद कर नहीं चला है। उसने सामाजिक क्षेत्र में भी नारी को पुरुष के समान महत्व दिया है। संयम के क्षेत्र में भिक्षुणियाँ ही नहीं गृहस्थ उपासिकाओं भी अनवरत् आगे बढ़ी हैं। भगवान् महावीर के प्रमुख श्रमणोपासक गृहस्थों का नामोल्लेख जहां होता है वहीं प्रमुख उपासिकाएं की भी चर्चाएं आती है। सुलसा, रेवती, जयन्ती, मृगावती जैसी नारियां महावीर के समवसरण में पुरुषों के समान ही आदर व सम्मानपूर्वक बैठती है।
___ भगवती सूत्रानुसार जयन्ती नामक राजकुमारी ने भगवान् महावीर के पास गम्भीर, तात्विक एवं धार्मिक चर्चा की है तो कोशा वेश्या अपने निवास पर स्थित मुनि को सन्मार्ग दिखाती है।
... उत्तराध्ययन सूत्र में महारानी कमलावती एक आदर्श श्राविका थी, जिसने राजा इषुकार को सन्मार्ग दिखाया है। महारानी चेलना ने अपने हिंसापरायण महाराज श्रेणिक को अहिंसा का मार्ग दिखाया।
श्रमणोपासिका सुलसा की अडिग श्रद्धा सतर्कता के विषय में भी हमें विस्मय में रह जाना पड़ता है। अम्बड़ ने उसकी कई प्रकार से परीक्षा ली। ब्रह्मा, विष्णु, महेश बना, तीर्थकंर का रूप धारण कर समवसरण की लीला रच डाली। किन्तु सुलसा को आकृष्ट न कर सका। सुलसा की श्रद्धा देखकर मस्तक श्रद्धावनत हो जाता है। रेवती की भक्ति देवों की भक्ति का भी अतिक्रमण करने वाली थी।
उपर्युक्त विश्लेषण से यह प्रमाणित हो जाता है कि जैन दर्शन के मस्तक पर नारी तपशील और दिव्य सौन्दर्य के मुकुट की भांति शौभायमान है। उसकी कोमलता में हिमालय की दृढ़ता और सागर की गंभीरता छिपी हुई है। सीता, अन्जना, द्रौपदी, कौशल्या, सुभद्रा आदि महासतियों का जीवन चारित्र आर्य संस्कृति का यशोगान है। इनके संयम, सहिष्णुता एवं विविध आदर्शों को यदि देवदुर्लभ सिद्धि कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी।
ये लब्धियां महाकाल की तूफानी आंधी में भी कभी धूल धूसरित न होगी। वस्तुतः जैनागमों में नारी जीवन की विविध गाथाएं उन नन्हीं दीप शिखाओं की भांति है जो युग-युगान्तर तक आलोक की किरणे विकीर्ण करती रहेगी। यह दीप शिखाएँ दिव्य स्मृति-मंजूषा में जगमगाती रहेगी। वर्तमान परिस्थितियों में यह ज्योति अधिक प्रासंगिक है, क्योंकि आज भी नारी विविध विषमताओं के भयानक डैनों से स्वयं को मुक्त नहीं पा रही है। यदि हम जैन श्रमणियों और आदर्श श्राविकाओं की सुष्ठु एवं ज्योतिर्मय परम्परा को एक बार पुन: समय के पटल. पर स्मरण करें तो आने वाले कल का चेहरा न केवल कुसुमादपि कोमल होगा अपितु उसमें हिमालयदपि दृढ़ता का भी समावेश हो जायेगा।
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