Book Title: Mahasati Dwaya Smruti Granth
Author(s): Chandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
Publisher: Smruti Prakashan Samiti Madras

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Page 523
________________ वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा आज सर्वाधिक बड़ी समस्या बनी हुई है। पेड़-पौधों को काटकर आज हम उन्हें व्यर्थ ही जलाने चले जा रहे हैं। वे मूक-वधिर अवश्य दिखाई देते हैं पर उन्हें हम आप जैसी कष्शनुभूति होती है। पेड़-पौधे जनमते, बढ़ते और म्लान होते हैं। भगवती सूत्र के सातवें - आठवें शतक में स्पष्ट कहा है कि वनस्पति कायिक जीव भी हम जैसे ही श्वासोच्छवास लेते हैं। शरद हेमन्त, वसंत, ग्रीष्म आदि सभी ऋतुओं में कम से कम आहार ग्रहण करते हैं। वर्तमान विज्ञान की दृष्टि से भी यह कथन सत्य सिद्ध हुआ है। प्रज्ञापना ( २२ से २४ सूत्र) में वनस्पति कायिक जीवों के अनेक प्रकार बताये हैं और उन्हीं का विस्तार अंगविज्जा आदि प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। इन ग्रंथों के उद्धरणों से यह तथ्य छिपा नहीं है कि तुलसी जैसे सभी हरे पौधे और हरी घांस, बांस आदि वनस्पतियाँ हमारे जीवन के निर्माण की दिशा में बहुविध उपयोगी हैं। यह एक विश्वजनीन सत्य है कि पदार्थ में रूपान्तरण प्रक्रिया चलती रहती। “सद्द्रव्य लक्षणम्” और “उत्पाद् व्यय घ्रौव्य युक्तं सत्" सिद्धांत सृष्टि संचालन का प्रधान तत्व है। रूपांतरण के माध्यम से प्रकृति में संतुलन बना रहता है । पदार्थ पारस्परिक सहयोग से अपनी जिन्दगी के लिए ऊर्जा एकत्र करते हैं। और कर्म सिद्धांत के आधार पर जीवन के सुख - दुःख के साधन संजो लेते हैं। प्राकृतिक संपदा को असुरक्षित कर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर हम अपने सुख-दुःख की अनुभूति में यथार्थता नहीं ला सकते। अप्राकृतिक जो भी होगा, वह मुखौटा होगा, दिखावट के अलावा और कुछ नहीं । प्रकृति का हर तत्व कहीं न कहीं उपयोगी होता है। यदि उसे उसके स्थान से हटाया गया तो उसका प्रतिफल बुरा भी हो सकता है। ब्रिटेन में मूँगफली की फसल अच्छी बनाने के लिए मक्खी की जाति को नष्ट किया गया फिर भी मूंगफली का उत्पादन नहीं हुआ क्योंकि वे मक्खियाँ मूँगफली के पुष्पों के मादा और नर में युग्मन करती थीं। सर्प आदि अन्य कीड़े-मकोड़ों आदि के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। पर्यावरण का संबंध मात्र प्राकृतिक संतुलन से ही नहीं है बल्कि आध्यात्मिक और सामाजिक वातावरण से परिशुद्ध और पवित्र बनाये रखने के लिए भी उसका उपयोग किया जाता है। संक्षेप में यदि कहा जाय तो धर्म ही पर्यावरण का रक्षक है और नैतिकता उसका द्वारपाल । आज हमारे समाज में चारों ओर अनैतिकता और भ्रष्टाचार सुरसा की भांति बढ़ रहा है। चाहे वह राजनीति का क्षेत्र हो या शिक्षा का, धर्म का क्षेत्र हो या व्यापार का, सभी के सिर पर पैसा कमाने का भूत सवार है। माध्यम चाहे कैसा भी हो इससे हमारे सारे सामाजिक संबंध तहस-नहस हो गये हैं । भ्रातृत्व भाव और प्रतिवेशी संस्कृति किनारा काट रही है, आहार का प्रकार मटमैला हो रहा है, शाकाहार के स्थान पर अप्राकृतिक खान पान स्थान ले रहा है। मिलावट ने व्यापारिक क्षेत्र को सड़ी रबर की तरह दुर्गन्धित कर दिया है। अर्थ लिप्सा की पृष्ठभूमि में बर्बरता बढ़ रही है। प्रसाधनों की दौड़ में मानवता कूच कर रही है। इन सारी भौतिक वासनाओं की पूर्ति में हम अपनी आध्यात्मिक संस्कृति को भूल बैठे हैं। मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाओं के बीच समन्वय खतम हो गया है। हमारी धार्मिक क्रियाएं मात्र बाह्य आचरण का प्रतीक बन गयी है। परिवार का आदर्श जीवन समाप्त हो गया है, ऐसी विकट परिस्थिति में अहिंसा के माध्यम से पर्यावरण को संतुलित बनाये रखने की साधना को पुनरूज्जीवित करना नितांत आवश्यक हो गया है। पर्यावरण का यह विकट आंतरिक और बाह्य असंतुलन धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में जबरदस्त क्रांति लायेगा। यह क्रांति अहिंसक हो तो निश्चित ही उपादेय होगी, पर यह असंतुलन और बढ़ता गया तो खूनी क्रांति होना भी असंभव नहीं । जहाँ एक दूसरे समाज के बीच लम्बी-चौड़ी खाई हो गयी (२००) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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