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अनंतचतुष्टय - न अंतः यस्य असौ अनंत। चतुः स्त: हल संधि होकर विसर्गों का 'व' 'स्त' का त: होकर चतुष्टय शब्द निष्पन्न हुआ। अनंत का पर्याय आत्मा है तथा चतुष्टय का अर्थ चार तत्वों आदि का समूह। इस प्रकार 'आत्मानः चतुष्टयं अनंत चतुष्टय' अर्थात आत्मा के चार गुण। जिनवाणी में आत्मा का स्वभाव अनंत चतुष्टय बताया गया है। अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनंत सुख के समन्वित रूप को अनंत चतुष्टय कहते हैं। जीवात्मा निजस्वभाव द्वारा चार घातिया - दर्शनावरणी, ज्ञानावरणी, मोहनीय, अंतराय-नामक-कर्मों को क्षय कर अनंत चतुष्टय गुण को प्राप्त कर अनंतानंद की अनुभूति करता है। अनंत चतुष्टय जैन दर्शन में इसी अभिप्राय में प्रयुक्त हुआ है।
___ अनन्तानुबंधी - अनंतस्य अनुबंध: अनंतानुबंधः। अनंतकाल से अनुबंधित होने वाले कषायों को अनंतानुबंधी कहते हैं। जिनके उदय होने पर आत्मा को सम्यक्तव न हो सके, स्वरूपाचारण चरित्र न हो सके। वे अनंतानुबधीकषाय है। जीव की अनंतानुबंधी प्रकृति के उदय होने से अभिप्राय की विपरीतता के कारण इसे सम्यक्तव घाती पर तथा पर - पदार्थों में राग द्वेष उत्पन्न करने के कारण चारित्रघाती कहा है। यह अनंतानुबंधी कषाय चार प्रकार से कहा गया है यथा-क्रोध, मान, माया, लोभ,।
अनुभागबंध - 'अनु' उपसर्ग 'भज' धातु से अनुभाग शब्द की सिद्धि होती है अर्थात् अनुपश्चात भज्यते इति अनुभाग । अनुभागस्य बंधः अनुभागबंधः। जैन दर्शन के अनुसार कर्मों में तीव्र मंद फलदान शक्ति अनुभाग बंध कहलाती है। अनुभागबंध-बंध तत्व के चार प्रकारों - प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बंध तथा प्रदेश बंध में से एक बंध विशेष है। कषाय प्रवृत्तियों द्वारा प्रकृतियों में अनुभाग बंध होता है। अनुभाग बंध के अनुसार ही कर्म के उदय काल में उनकी प्रवृत्तियों का फल उत्पन्न होता है।
अनर्थदण्ड - अनर्थ व्यर्थ दंड: अनर्थदंड। अनर्थ दंड का अर्थ व्यर्थ में किसी को दंड देना है। जिनवाणी में कहा है कि निष्पयोजन किया हुआ कार्य वस्तुतः अनर्थदंड कहलाता है। इस शब्द का व्यवहार जैन दर्शन में सर्वत्र हुआ है। इसके त्याग को अनर्थदंड व्रत कहा गया है।
अनायतन - न आयतनं अनायतनम्। यह यौगिक शब्द है अन+आयतन। अर्थात धर्म का स्थान न होना। कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और इन तीनों के सेवक इस तरह अधर्म के स्थानक षट् प्रकार से कहे गए हैं। इनकी संगति से सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती है। फलस्वरूप वीतराग भाव प्रकट नहीं हो पाता। परिणाम स्वरूप प्राणी को परम इष्ट मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो पाती। इनसे अतत्व श्रद्धान परिपुष्ट होकर मोह-भाव का प्रयोजन प्रकट होता है। अनायतन शब्द का प्रयोग जिनवाणी में इसी अभिप्राय को लेकर हुआ है।
अनुप्रेक्षा - अनु+प्र+ईक्ष धातु में टाप लगाने से अनुप्रेक्षा शब्द बना जिसका अर्थ चारों ओर से देखना है। इस प्रकार अनुप्रेक्षा का शाब्दिक अर्थ देखना, सोचना तथा चिंतन करना है। वस्तुतः अनुप्रेक्षा भावना का ही पर्यायवाची है। आत्मा में वैराग्य के लिये जिनका बारंबार चिन्तवन किया जाता है इसे भावना कहते हैं। इस प्रकार के चिन्तवन को बारह कोटियों में विभाजित किया गया है। (१) अनित्यानुप्रेक्षा - पर्याय की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु क्षणिक है (२) अशरणोनुप्रेक्षा - संसार में कोई भी शरण नहीं है (३) संसारानुप्रेक्षा - संसार का स्वरूप वर्णन, अपने-तेरे से उत्पन्न दुःख वर्णन (४) एकत्वानुप्रेक्षा - जीव के अकेलेपन का कथन (५) अन्यत्वानुप्रेक्षा - जीव से शरीरादि भिन्न है
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