Book Title: Mahasati Dwaya Smruti Granth
Author(s): Chandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
Publisher: Smruti Prakashan Samiti Madras

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Page 563
________________ यदि कषाय अथवाय क्षाणिक रूपी कुपथ्य का सेवन किया तो यही रसायन क्षणिक इच्छा पूरी कर के महान दुःखदायक बन जाती है। तप का ढोंग बड़ा खतरनाक होता है आगमकार उसे तप चोर कहते है। तवतेणे वयतेणे रूवतेणे य जेनरे। अयार भावतेणे य, कुब्बई देवकिदिवसं • दशवै कालिक जो साधु तपचोर, व्रतचोर, वचनचोर, रूपचोर और आचार भाव का चोर होता है वह नीच जाति के देवों में उत्पन्न होता है। तथा वहां से चलकर भेड बकरा होता है इसके बाद नरक गति प्राप्त कर दुखी होता है। तप चोर के विषय में और भी बताया है। अतवस्सी य जे के इ तवेण पविकत्थइ। सव्वलोए वरे तेणे महा मोहं पकुव्वइ • दशाश्रुतस्कन्य जो तपस्वी नहीं होता हुआ भी अपने आप को तपस्वी के रूप में उपस्थित कर सम्मान प्राप्त करता है वह महा मोहनीय कर्म का बंध करता है। तप एक प्रकार की दया है। सुख दुःख का अनुभव आत्मा करती है, शरीर नहीं, शरीर अधिष्ठाता आत्मा है। आत्मा सर्दी गर्मी भूख प्यास सहने करने में प्रसन्नता अनुभव करता है उस प्रसन्नता को बढाना तप है। क्रोध, लोभ मोह, स्वार्थ वश शारीरिक कष्ट सहा जाता है बिना ज्ञान के खुद कष्ट में पहुँचता है, दूसरो को कष्ट देना तप के नाम पर ताप है। इसके विपरीत स्वार्थ से दूर होकर को जगाकर वृत्तियों को वश में करना शरीर का कष्ट सहन करते हुए मन में उल्लास भाव रखना विषय कषाय वृत्तियों को ढीली पटकना ताप है। तप के बाद उदासीन न होकर उंमग हर्ष की लहर आनी चाहिये तप का लक्ष्य कर्म बंधन काटना है। तपस्या जो भी की जाय वह विशुद्ध भावों से, मात्र कर्म निर्जरा के लिये ही करनी चाहिये। इसके लिये किसी भी प्रकार की दूसरी भावना नहीं होनी चाहिये। तप समाधि है, यह समाधि चार प्रकार की होती नो इह लोगट्ठायाए तव महिछिज्जा नो पर लोगाठायाए तब महिछिज्जा नो कितिवण्णछसिसे लोगगठ्ठयाए तव महिछिज्जा ननत्थ णिज्जरठ्याए तब महिछिज्जा • दशवैकालिक (२४०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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