Book Title: Mahasati Dwaya Smruti Granth
Author(s): Chandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
Publisher: Smruti Prakashan Samiti Madras

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Page 575
________________ तप को भ.महावीर ने २ भागों में विभक्त किया बाह्य-तप व आंतरिक तप। ये भेद केवल औपचारिक है। स्थूल व सूक्ष्म शरीर की भांति ये भी संयुक्त है। बाह्य तप के प्रकार में अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रस-परित्याग, कायाक्लेश, प्रतिसंलीनता तथा आंतरिक प्रकार में प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान। ध्यानाध्ययन में आचार्य जिनभद्रगणि कहते है= "मोक्ष के दो मार्ग है- संवर और निर्जरा। उनका मार्ग है तप और तप का प्रधान अंग है-ध्यान। इसलिए मोक्ष का मुख्य साधन ध्यान है। जैन दर्शन अनुसार मोक्ष के दो हेतु है एक संवर और दूसरा निर्जरा। संचित कर्मों का आत्मा से पृथक हो जाना 'निर्जरा' है “संवर' से यद्यपि नवीन कर्मों का आना रुक जाता है तथापि पुरातन कर्म तो आत्मा में संचित ही रहते है उनको ही दूर करने के लिए आत्मा को विशेष प्रयास करने की आवश्यकता होती है क्योकि वे एक साथ आत्मा के विलग नहीं हो जाते, अपितु क्रम २ से दूर होते हैं। 'नेमिचंद्रिका' वि ने सफल निर्जरा की प्राप्ति के लिए आत्मध्यान अर्थात तपश्चर्या को अनिवार्य माना है। तप द्वारा कर्म श्रृखंला छिन्न भिन्न होती है और जीव मुक्तता की ओर बढ़ता है। सारांश में तप हमें चरमबिंदु तक पहुंचाने की सफल सीढ़ी है। * * * * * चिंतक कण • प्रेम का क्षेत्र संकुचित नहीं बल्कि आकाश की तरह विशाल व व्यापक हैं। • प्रेम किसी वाटिका या कारखाने में उत्पन्न नहीं होता; वह तो हृदय का उदगार है। • प्रेम की सरिता में बहकर ही जन-जन को प्रेम का संदेश देना कारगर होता है। प्रेम वाटिका में अनेकों पुष्प खिले हुए है, उस वाटिका में स्वयं जाकर ही उस पुष्प रूपी प्रेम सौरभ से हम जीवन को महका सकते हैं। • परम विदुषी महासती चम्माकुंवर जी म.सा (२५२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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