Book Title: Mahasati Dwaya Smruti Granth
Author(s): Chandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
Publisher: Smruti Prakashan Samiti Madras

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Page 574
________________ , 'तवसा परिसुज्झई' तप से पूर्व संचित कर्मों का क्षय होकर आत्मा की शुद्धि होती है। तप से आत्मा के कर्मों की निर्जरा होती है। तप के लिए समय ऋतु आदि का बंधन नहीं क्योंकि तप आत्मा को आनंदित करने का हेतु है। तप तो गंगा की पवित्रतम धारा की भांति है जो सागर (मोक्ष) में मिलकर ही अपने अस्तित्व की सफलता स्वीकार करती है। तप में एक ऐसी शक्ति है कि वह पाप से दबी आत्मा को हल्का करने की प्रक्रिया है जिस प्रकार कुंदन के प्रयोग से सोना निखरता जाता है, वह मूल रूप में आता है। उसी प्रकार अहर्निश तप का जीवन में स्वाभाविक रूप से उतर जाने के बाद वह क्षण दूर नहीं रह जाता, जब हम अपने जीवन के वर्तमान क्षण में ही चरमानंद स्थिति से सरोबार होते हुए मुक्ति के क्षणों का दर्शन कर सकें। तप जैसा छोटा सा शब्द अपने आप में व जीवन में उतरने हेतु इतना गंभीर व रहस्यात्मक है कि जैसे अग्नि कूड़ा कर्कट के ढेर को जलाकर वह जगह स्वच्छ करने में समर्थ हो जाती है। ठीक वैसे ही चंचल मन से आच्छादित अनादिकाल के क्रियाकलापों से पाप में दबी यह आत्मा को उसके सही अस्तित्व में प्रस्तुत कर उसके प्रकाश से चारों और प्रकाश्य विकीर्ण करने में समर्थ हो जाती है। तप एक ऐसी अग्नि है जो भीतर एकत्र हए अवांछित तत्वों को जला डालती है। परिणामतः चेतना का ऊर्वारोहण होना संभावित होता है और साधक अपने जीवन में शांतिमय आनंदानभति में समाहित होता है। भ. महावीर का तप की ओर यही संकेत था कि अपनी जीवनीशक्ति ऊर्जा बाहर प्रवाहित न होकर अंदर ठहर जाय। अत: चेतना का अंतमुखी प्रवाह ही तप है। __ तप एक ऐसा सरल नियम है जिसके सहारे हम अपनी इंद्रियों को वश में करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इंद्रिया वश में होने से मन बहिर्मुखी बनने के बजाय अंतर्मुखी बनता है। उसकी दृष्टि शनैः शनैः इतनी निर्मल होती जाती है कि आत्मा को निर्मल बनाने में अग्रसर हो जाता है। तप का उद्देश्य है इंद्रियों की उत्तेजना पर विजय प्राप्त करना, निद्रा विजयी होना और स्वाध्याय ध्यान में निराबाध प्रवृत्त रहना। आचार्य कुंदकुंद ने यहां तक लिखा है कि “वह जैन शासन को नहीं जान सकता जो आहार विजयी, निद्राविजयी, और आसन विजयी नहीं है। प्रमाद, विपर्यय, विकल्प निद्रा और स्मृति ये पांच वृत्तियों के कारण चित्त शुद्ध नहीं रहता और अशद्ध चित्त में परमात्मा का अवतरण नहीं होता। अतः सफलता के चरण चूमने तप की शरण में जाना नितांत आवश्यक है। जिस प्रकार घनघोर काली घटा को वायु का तीव्र झोंका बिखेर देता है उसी प्रकार तप कर्म रूपी बादल को छिन्न भिन्न कर देता है। भ. महावीर ने कहा है। सउणी जह पंसुगुंडिया, विहुणिय धंसयई सियं रयं! एवं दवि ओवहाणवं कम्मं खवइ तवस्सि माहणे!! सू.कृ. १/२/१/१५ "जिस प्रकार शकुनी पक्षी अपने पैरों को फड़फड़ा कर अपने ऊपर लगी धूल झाड़ देता है, उसी प्रकार तपस्या द्वारा मुमुक्षु अपने आत्मप्रदेशों पर लगी हुई कर्म-रज को दूर कर देता है। “तप के माध्यम से आत्मा पापों से मुक्त होती है। आत्मा पर चढ़े कर्म आवरण दूर होते है। तप के द्वारा कठिन से कठिन कार्य भी सरल हो जाते है लेकिन तप इहलोक या श्लाघा, प्रशंसा निमित्त नहीं करना चाहिए केवल तप कर्म निर्जरा हेतु करना चाहिए। (२५१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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