Book Title: Mahasati Dwaya Smruti Granth
Author(s): Chandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
Publisher: Smruti Prakashan Samiti Madras

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Page 533
________________ जैनदर्शन में प्रयुक्त कतिपय दार्शनिक शब्द डॉ. (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया 'दीति' प्रत्येक तत्वदर्शी ने आचार रूप धर्म का उपदेश देने के साथ वस्तु स्वभाव रूप धर्म का भी उपदेश दिया है जिसे दर्शन कहा गया है। प्रत्येक धर्म का अपना एक दर्शन होता है। दर्शन में आत्मा क्या है ? परलोक क्या है? विश्व क्या है? ईश्वर क्या है ? आदि-आदि मूल तत्वों पर विचार किया जाता हैं। आध्यात्मिक तथा भौतिक जगत को देखने की दृष्टि अलग है। जैन दर्शन को प्रतिपादित करने वाले अनेक शब्द हिन्दी जैन साहित्य में व्यवहृत हैं जिनका शब्दार्थ लौकिक हिन्दी काव्य से भिन्न है । दार्शनिक शब्द का अर्थ है - दर्शन विषयक शब्द समूह । दर्शन विषय का प्रतिपादन करने वाले शब्द कुल वस्तुतः दार्शनिक शब्द कहलाते हैं। इन शब्दों में एक विशेष अर्थ अभिप्राय सन्निहित रहता है। फलस्वरूप इन्हें पारिभाषिक रूप में सम्मिलित किया जाता है। पारिभाषिक शब्द उन्हें कहते हैं जो किसी विशिष्ट अर्थ को अपने में समेटे रहते हैं । प्रस्तुत आलेख में जैनदर्शन से संबंधित कतिपय दार्शनिक शब्दों का अर्थ - अभिप्राय प्रस्तुत करना हमें अभीप्सित है। - अजीव - न जीवः इति अजीवः अर्थात चैतन्य शक्ति का अभाव है। जैनदर्शन में षट् द्रव्यों का उल्लेख मिलता है - यथा-जीव, अजीव धर्म, अधर्म, आकाश, काल । अजीव द्रव्य जड़ रूप है। उसमें ज्ञाता द्रष्टा स्वरूप जीव द्रव्य की योग्यता नहीं है। अजीव द्रव्य के अंतर्गत चार प्रकार का वर्णन हुआ है। पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश। इसमें पुदगल द्रव्य मूर्तीक है क्योंकि उसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श पाया जाता है क्योंकि इसमें रूपादि गुण नहीं होते । अजीव द्रव्य का कथन सभी आचार्यों ने भेदप्रभेद सहित किया है। सभी ने उसे जीव से विपरीत लक्षण वाला तत्व स्वीकार किया है। · अणुव्रत 'अणु' का अर्थ सूक्ष्म है तथा व्रत का अर्थ धारण करना है। इस प्रकार अणुव्रत शब्द की संधि करने पर इस शब्द की निष्पत्ति हुई - अणु नाम व्रत ही अणुव्रत है। निश्चय सम्यक् दर्शन सहित चरित्र गुण की आंशिक शुद्धि होने से उत्पन्न आत्मा की शुद्धि विशेष को देशचारित कहते हैं । श्रावक दशा में पांच पापों का स्थूल रूप एक देश त्याग होता कहै, उसे अणुव्रत कहा जाता है। अणुव्रत पाँच प्रकार से कहे गए हैं- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। यह अणुव्रत सम्यक् दर्शन के बिना नहीं होते हैं, ऐसा जैनाचार्यों ने कहा है । - Jain Education International अतिचार - चरते इति चारः अत्यंत निकृष्टतम चारः अतिचारः । 'चर' धातु में अति उपसर्ग पूर्वक इस शब्द की निष्पत्ति हुई है जिसका अर्थ है सम्यक् आचार से अतिरिक्त आचरण करना अथवा विषयों का वर्तन करना। राग के उदय से जीवात्मा सम्यक् श्रद्धान से विचलित हो जाता है। इस प्रकार इंद्रियों की असावधानी से शील व्रतों में कुछ अंश भंग हो जाने को अर्थात् कुछ दूषण लग जाने को अतिचार कहते हैं। जिनवाणी में दो अतिचार के भेद कहे हैं। (१) देशत्याग मन, वचन, काय कृतकारित, अनुमोदनादि नौ भेदों से किसी एक के द्वारा सम्यक् दर्शानादि में दोष उत्पन्न होना देशातिचार है । (२) सर्वत्याग - सर्व प्रकार से अतिचार होना सर्व त्यागातिचार है । (२१०) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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