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जीवन को सुविकसित एवं परिपूर्ण बनाने के लिये तप की महती आवश्यकता है। तप में वह असीम शक्ति है जिससे जीवन-जीवन बनता है। तप के अनेक भेद हो सकते हैं किंतु सूक्ष्म रूप से दो प्रकार में विभाजित किया गया है।
. सो तवो दुविले वुत्तो बहिरभंतरो तहा। तप दो प्रकार के होते है।
१. बाह्य तप २. आभ्यंतर तप बाह्य तप
जिस तपः साधना का सम्बन्ध शरीर से अधिक प्रतीत होता है उसे बाह्य तप कहते है। जैसे - उपवास, प्रत्याख्यान आदि। बाह्य तप ६ प्रकार का है-। १. अनशन, २. ऊनोदरी, ३. भिक्षाचरी, ४. रसपरित्याग, ५. कायक्लेश, ६. संलीनता। आभ्यंतर तपः
आभ्यतंर तप का सीधा संबंध आत्मा से होता है। इसके भी ६ भेद स्वीकार किये गये है। १. प्रायश्चित, २. विनय, २. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान, ६. कायोत्सर्ग।
कुछ लोग ऐसा सोचते है कि बाह्य तप गौण है परंतु यह नितांत भ्रांत धारणा है, निर्मूल विचारणा है क्योंकि बाह्य तप की दृढ़ता न होने पर आभ्यंतर तप सहज संभाव्य नहीं है और हाँ यह भी सत्य है कि आभ्यंतर तप के अभाव में बाह्य तप की व्यर्थता स्पष्ट है।
उत्तरा नन्यंगन ३/७
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