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(६) अशुचित्वानुप्रेक्षा - शरीर की अशुचिता का कथन (७) आस्रवानुप्रेक्षा - योग ही आस्रव है। तीव्र-मंद, कषाय अशुभ शुभ आस्रव के कारण हैं (८)संवरानुप्रेक्षा - संवर के हेतु-गुप्ति, समिति, धर्म आदि का स्वरूप वर्णन (९) निर्जरानुप्रेक्षा - निर्जरा का स्वरूप उसके कारणों का वर्णन (१०)लोकानुप्रेक्षा - लोक के स्वल्पादि का वर्णन (११)बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा - मनुष्य जन्म प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करने के लिए रत्नत्रय में आदर भाव रखने की भावना (१२) धर्मानुप्रेक्षा- सर्वज्ञ देव का स्वरूप ज्ञान, सर्वज्ञता प्राप्त करने के साधनों को चितवन।
अनुयोग - ‘अनु' उपसर्ग को 'युज' धातु से धत्र प्रत्यय करने पर अनुयोग शब्द निष्पन्न होता है जिसका अर्थ परिच्छेद अथवा प्रकरण है। जिनवाणी में वर्णित आगम जिसमें सर्वज्ञ प्रणीत सूक्ष्म-दूरवर्ती-भूत व भावी काल के पदार्थों का निश्चयात्मक वर्णन किया गया है - ऐसे आगम के चार भेदों को अनुयोग कहते हैं जिनके क्रमश: चक्रवर्ती का चरित्र निरूपण, जीव कों, त्रिलोक आदि सप्त तत्वों 'मुनिधर्म' आदि का निरुपण किया गया है। जैनधर्म में अनुयोग चार प्रकार से कहे गये है। (१) प्रथमानुयोग - इसमें तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि महान पुरुषों का चरित्र वर्णन हैं। (२) करणानुयोग - यहाँ जीव के गुण-स्थान, उसके मार्गगादि रूप, कर्मों तथा त्रिलोकादि का निरूपण हुआ है। (३) चरणानुयोग - मुनि धर्म तथा गृहस्थ धर्म का वर्णन हुआ है। (४) द्रव्यानुयोग - षद्रव्य, सप्ततत्व, स्व-पर भेद विज्ञानादि का निरूपण हुआ है।
मंगलकलश, ३९४ सर्वोदयनगर, आगरा रोड़,
.. अलीगढ़
चिंतन कण
• प्रेम में वह शक्ति है जो तीर, तलवार,एटमबम्ल में भी नहीं हो सकती। • प्रेम रूपी मंत्र विश्व मैत्री के संदेश का सामर्थ्य रखता हैं। • जिस प्राणी को विश्व की बड़ी-बड़ी शक्ति परास्त नहीं कर सके, उसे स्नेह शक्ति ने नत मस्तक
कर दिया। • प्रेम में वह शक्ति है जो विष को भी अमृत में परिणत कर दें।
• परम विदुषी महास्ती श्री चम्पा कुवंरजी म.झा.
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