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समाज सुधार का यह संघर्ष अविराम प्रवर्तमान रहा। अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में भी जैनाचार्य जवाहरलाल जी महाराज तथा विजय वल्लभ सूरि ने स्वतंत्रता हेतु जन जागरण का संदेश दिया। गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा में जैन तपस्वी श्रीमद् राजचंद्र का स्मरण सआस्था किया। इस तरह श्रमण संस्कृति सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध संघर्ष करती हुई मानव को मानव के रूप में प्रतिष्ठित करने की परंपरा का नाम रही है। उसका परम उद्देश्य जनमंगल द्वारा विश्वमंगल ही है।
श्रमण संस्कृति का स्वरूप - भारतीय संस्कृति भारत की समग्र सांस्कृतिक एकता की सामूहिक बोध संज्ञा है। भारतीय संस्कृति के प्रधानतया दो पथ हैं - ब्राह्मण एवं श्रमण। जो समय प्रवाह के साथ विकसित होकर ब्राह्मण संस्कृति एवं श्रमण संस्कृति के नाम से सुविख्यात हुए। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के ध्वंसावशेषों ने ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक जगत में कई महत्वपूर्ण नवीन तथ्य प्रदान किये। इन ध्वंसावशेषों की खोज के पूर्व यह धारणा प्रचलित थी कि धर्म एवं संस्कृति का सम्बन्ध आर्यों से ही है और उनके आद्य प्रणेता आर्य ही थे। इन ध्वंसावशेषों से प्राप्त प्रस्तर मूर्तियों एवं सांस्कृतिक अभिलेखों ने
दशा दी कि आर्यों के आगमन से पर्व भी भारतीय धरा पर दर्शन, धर्म एवं संस्कृति का न केवल जन्म अपितु विकास भी हो चुका था। आर्य-काल के पूर्व का मानव न केवल सांस्कृतिक कलाओं में प्रवीण था अपितु आत्मविद्या का भी ज्ञाता था। जो ध्वंसावशेष मिले हैं उनका श्रमण संस्कृति से भी सम्बन्ध है, ऐसा अभिमत डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन का है। ऐसी ही धारणा डॉ. हेरास तथा प्रो. श्रीकंठ शास्त्री ने प्रदान की है। २१ ऋग्वेद के अनुसार भी पहले दो संस्कृतियाँ थीं जो ब्राह्मण एवं श्रमण संस्कृतियों के नाम से प्रसिद्ध हुई। उनका ऋग्वेद में क्रमशः बार्हत और आर्हत के नाम से उल्लेख हुआ है। बार्हत वेदों को मानते थे। यज्ञ यागादि के प्रति उनकी आस्था थी जबकि आर्हत यज्ञादि को नहीं मानते थे। उनकी आस्था का केन्द्र अहिंसा जीव-दया था। वे अर्हत के उपासक थे। विष्णु पुराण ने आर्हतों को कर्म काण्ड विरोधी तथा अहिंसा का प्रतिष्ठापक स्वीकार किया। 17 आर्हत संबंधी ऐसा ही उल्लेख पद्म पुराण में भी उपलब्ध हुआ है। २३ आर्हत संस्कृति श्रमण संस्कृति का प्राचीन नाम ही था। श्रमण संस्कृति की वैदिक काल से आरण्यक काल पर्यन्त वातरशना मुनि किंवा व्रात्य संस्कृति के नाम से भी संबोधित किया है। व्रात्य से तात्पर्य व्रतों के पालक से लिया जाता है। अथर्ववेद में ब्रह्मचारी ब्राह्मण विशेष पुण्यशील विद्वान विश्व सम्मान्य व्यक्ति व्रात्य कहलाता था।"
ऋग्वेद में वातरशना मुनि शब्द अर्हत का समानार्थी है। सामणाचार्य ने जिनकी अतीन्द्रियार्थ दर्शी कहा है।२५ व्रात्यों को कैशी और मुनि के नाम से भी पुकारा है। २६ इन मुनियों के नेता नाभिपुत्र ऋषभदेव थे। इस तरह श्रमण संस्कृति की पहचान अलग-अलग समय में भिन्न-भिन्न नामों से हुई है।
२१. डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन- भारतीय इतिहास एक दृष्टि, पृष्ठ २८ २२. अहितं सर्वमेतत्थ मुक्ति द्वारम संवृत्तम् धर्माद विमुक्तरहोड्यं नैतमाद परः परः॥ विष्णु पुराण ३, १८, १२। . २३. पद्म पुराण १३/३५० २४. अथर्ववेद : सामणाचार्य १५/१/१/१
सामयण भाष्य-१० १३६, २ २६. अग्वेद १०-१२-३६-२ २७. श्रीमद् भागवत ५-६-२०।
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