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संसार संसारी आत्माओं से रिक्त नहीं हुआ तो अनन्त अनागत में भी यह कैसे रिक्त होगा? क्योंकि जिस प्रकार अनागत का एक समय वर्तमान बनकर अतीत बन जाता है, किन्तु अनागत जैसा का तैसा अनन्त बना रहता है, उसकी अनन्तमा कभी समाप्त नहीं होती। इसी प्रकार आत्माओं की अनन्तता में अन्तर नहीं आता है। अनन्त की यही तो अन्तता है कि कितनी भी वृद्धि हानि हो, लेकिन अपनी इयत्ता का अतिक्रमण नहीं करता है। अतएव अनन्त आत्माओं को मुक्ति प्राप्त कर लेने पर भी संसारी आत्माओं की अनन्तता में न तो किसी प्रकार का अन्तर आने वाला है और न संसारी आत्माओं से संसार रिक्त होने वाला है।
मुक्तात्माओं का पुनरागमन नहीं - मुक्तात्माओं का मुक्ति से प्रत्यावर्तन होकर पुनः संसार में न आने का कारण यह है कि जिस प्रकार शुद्ध स्वर्ण पुनः कीटकालिमा से संयुक्त नहीं होता है, उसी प्रकर कर्मकलंक से सर्वथा मुक्त मुक्तात्मा कर्मसंयोग की प्राप्त नहीं करती है। दूसरी बात यह है कि बीज के जल जाने पर अंकुरोत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही संसार के कारणभूत कर्मबीज के जल जाने पर भवांकुर भी उत्पन्न नहीं होता है। इसी कारण मुक्तात्माओं का संसार में प्रत्यावर्तन नहीं होता है।
मुक्तात्माओं संबंधी अनेक बिन्दुओं का संकेत करना अभी शेष है। विस्तारभय से वर्णन किया जाना संभव नहीं हो सका है। इस विहंगावलोकन से पाठकों को पर्याप्त बोध हो सकेगा यह हमारा मत है।
अब मुक्तिक्षेत्र सम्बन्धी वक्तव्य प्रारम्भ करते हैं।
मुक्ति क्षेत्र का स्वरूप व नाम - मुक्तक्षेत्र लोक के ऊपरी अग्रभाग में स्थित है। जैनदर्शन के अनुसार मध्य लोकवर्ती ढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र से मुक्ति प्राप्त होती है। जिसकी लंबाई-चौड़ाई पैतालीस • लाख योजन प्रमाण है। इतना ही क्षेत्र मुक्ति क्षेत्र का है। मुक्त क्षेत्र की मौटाई प्रारंभ में आठ योजन की है।
और ऊपर-ऊपर क्रमशः पतली, होती हुई अंतिमभाग में मक्खी के एक पंख से भी अधिक पतली मोटाई रह जाती है। यह शंख, स्फटिकमणि और कुन्दपुष्य के समान श्वेत, निर्मल और शुद्ध है यह उत्तान.. (ऊपर की ओर मुख किये हुए) छत्र के समान आकार वाला है तथा सवार्थ सिद्ध विमान से बारह योजना ऊपर है तथा मुक्ति क्षेत्र से एक योजन ऊपर लोकान्त है। यह क्षेत्र धनोदधि, धनबात और तनुबात इन तीन बातवलयों से परिवेष्टित है। अतीत, अनागत और वर्तमान काल में मुक्त हुई, होंगी और हो रही आत्मायें स्वरूप से इसी मुक्ति क्षेत्र में स्थित होती है।
मुक्ति क्षेत्र के आगमों में बारह सार्थक नाम इस प्रकार बतायें हैं -
१. ईषत् - रत्नप्रभा आदि अन्य नारक पृथ्वियों की अपेक्षा यह पृथ्वी छोटी होने से ईषत् कहलाती है।
२. ईषत् प्राग्भार - रत्न प्रभा आदि अन्य पृथ्वियों की अपेक्षा इसकी ऊँचाई (प्राग्भार) अल्प है। अतः इसको ईषत्प्राग्भारा कहते हैं।
३. तन्वी - अन्य पृथ्वियों से यह पृथ्वी तनु होने से तन्वी कहलाती है।
४. तनुतन्ची - विश्व में जितने तनु (पतले) पदार्थ है, उन सबकी अपेक्षा यह पृथ्वी ऊपरी भाग में पतली है।
५. सिद्धि - इस क्षेत्र में पहुंचकर मुक्तात्मा स्वस्वरूप की सिद्धि कर लेती है, जिससे यह भी सिद्धि कहलाती है।
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