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सिद्धान्त है। प्रसिद्ध जैन दार्शनिक मल्लिषेण सूरि के स्याद्वादमंजरी में कहा गया है कि ज्ञान के अनन्त धर्मात्मक होने से ही स्याद्वाद सिद्ध होता है।
सप्तभंग - भंग का अर्थ है विभाजित करना या तोडना। स्याद्वाद के अनुसार किसी भी वस्त के संबंध में जो अनेक विधान संभव होंगे उनके सात विभाग या 'भंग' हो सकते हैं। उनमें तीन भंग मूलभूत माने जाते हैं। भगवती सूत्र इस ग्रंथ में केवल तीन ही भंगों का उल्लेख मिलता है। वे तीन भंग है -(१) स्यादस्ति (२) स्यान्नास्ति (३) स्याद वक्तव्यः। परन्तु बाद में यह देखा गया कि इन तीनों में से दो-दो को एक दूसरे के साथ लेने से और चार भंग बन जाते हैं। इस प्रकार ज्ञान के सात भंग या विभाग बाद में प्रचलित हुवे, उनको सप्तभंग कहा जाने लगा, तथा स्याद्वाद और सप्तभंग इन दोनों के बीच एक अटूट रिश्ता बन गया। वे अन्य चार भंग इस प्रकार हैं -(४) स्यादस्ति नास्ति (५) स्यादस्ति च अवक्तव्यः (६) स्यान्नास्ति च अवक्तव्यः तता (७) स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यः।
ज्ञान के पाँच प्रकार - ज्ञान जीव का गुण है। स्वभाव से जीव अनन्त ज्ञान से युक्त रहता है। परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म के कारण यह अनन्त ज्ञान हम सब लोगों में आच्छादित हो जाता है। ज्ञान के पाँच प्रकार होते हैं। वे हैं -मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि, मनः पर्यय, तथा केवल ज्ञान। इंद्रिय के सन्नि कर्ष से मन में जो वस्तु का बोध होता है उसको मतिज्ञान कहते हैं। इसके चार स्तर होते हैं। अवग्रह बाद विशेष बोध की जिज्ञासा होती है, वह ईहा नाम का दूसरा स्तर है। उसके द्वारा जो बोध होगा वह 'अवाय' नाम · का तीसरा स्तर है। कालान्तर से इसका स्मरण होता है, वही चौथा स्तर धारणा कहलाता है। मतिज्ञान के अनेक भेद माने गये हैं। जैन दार्शनिकों ने उनके संबंध में विस्तृत विश्लेषण किया है।।
ज्ञान का दूसरा प्रकार है श्रुत ज्ञान। इसका मुख्य आधार होता है शास्त्र वचन। मति तथा श्रुत इन दोनों को परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। इसके अलावा जो ज्ञान जीव को इंद्रियों के माध्यम के बिना प्राप्त होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है। उसके तीन प्रकार है अवधि, मनः पर्यय, तथा केवल। अवधि ज्ञान पुद्गल द्रव्य के ज्ञान को कहते हैं। मनः पर्यय ज्ञान चारित्र्य संपन्न साधु लोगों को ही प्राप्त हो सकता है। इससे किसी भी व्यक्ति के मन के विचारों का ज्ञान होता है। सम्यक चारित्र्य के आचरण से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो जाने से जीव की स्वभावगत अनंत ज्ञानशक्ति प्रकट होने से केवल ज्ञान का उदय होता है। उसको स्थल और काल की कोई सीमा नहीं रहती। केवली पुरुष को किसी भी वस्तु के सभी अनन्त गुणों का ज्ञान हो जाता है। वह जीव लोकाकाश को पार करके संसार के बन्धन से हमेशा के लिये मुक्त हो जाता है। केवल ज्ञान से मुक्ति को प्राप्त होना यही प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।
एफ-३०५ एम्यनगरी बिबवेवाड़ी, पुणे ४११०३७
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