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जैन धर्म में व्रत
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• डॉ. ए.बी. शिवाजी
विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं है जिस ने व्रत की आवश्यकता और उसके महत्व को प्रतिपादित नहीं किया हो। इस लेख में हम अपने आप को “जैन धर्म में व्रत" तक ही सीमित रखेंगे क्योंकि जिस सूक्ष्मता से जैन में धर्म व्रतों का अन्वेषण किया गया और विस्तारित किया गया वैसा अन्य धर्मों के विद्वान नहीं कर सके हैं। जैन धर्म में व्रतों के इतिहास पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि “आरम्भ में व्रतों' की संख्या बहुत थोड़ी थी। आदि पुराण में केवल दशलक्षण, रत्नत्रय, षोडश कारण, और अष्टान्हिका व्रतों का ही उल्लेख मिलता है। अधिकांश व्रतों की कल्पना और रचना भट्टारकों द्वारा चौदहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच हुई जो काम्यव्रतों की श्रेणी में आते हैं।'' जैनागम में व्रत की परिभाषा निम्न रूप से बताई गई है -
संकल्प पूर्वकः सेव्यो नियमोऽशुभ कर्मशाः।
निवृतिवी व्रतं स्याद्वा प्रवृति शुभ कर्मशि॥ अर्थात् सेवन करने योग्य विषयों में संकल्प पूर्व नियम करना अथवा हिंसादि अशुभ कर्मों से संकल्प पूर्वक विरक्त होना अथवा पात्रदानादिक शुभ कर्मों में संकल्प पूर्वक प्रवृत्ति करना व्रत है। देवेन्द्र मुनि शास्त्री के अनुसार व्रत का अर्थ, किसी कार्य को करने या न करने का मानसिक निर्णय बतलाते हैं। जिसे व्यवहार में संकल्प कहा जा सकता है किन्तु वे संकल्प और व्रत में अन्तर करते हैं। वे लिखते हैं -“संकल्प मानसिक निर्णय ही है और निर्णय शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार के हो सकते हैं, पर व्रत सदा शुभ ही होता है। वह जीवन को नियंत्रित करने वाली स्वेच्छा से स्वीकृत मर्यादा है। समाज, राष्ट्र और परिवार की सुव्यवस्था, सुरक्षा और सुख शांति के लिए व्रत ग्रहण करना आवश्यक है। व्रत एक प्रकार का आत्मानुशासन है जो शरीर, इन्द्रिय और मन को अपने अनुशासन में रखता है।” र
व्रत और विवेक में गहरा सम्बन्ध है क्योंकि व्रति केवल व्रत ही नहीं लेता, पहिले वह विवेक को जगाता है, श्रद्धा और संकल्प को दृढ़ करता है, कठिनाइयाँ झेलने की क्षमता पैदा करता है। प्रवाह के प्रति कूल चलने का साहस लाता है फिर वह व्रत लेता है।” ३ ।
जैन धर्म में प्रचलित व्रत - महावीर ने जीवन व्रत साधना का प्रारुप प्रस्तुत किया था। इसी कारण साधना जीवन को दो वर्गों में बांटते हुए उन्होंने बारह व्रत बतलाये। इन बारह व्रतों की तीन श्रेणियाँ
१.
महावीर जयन्ती स्मारिका, १९७२ जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप, देवेन्द्र मनि शास्त्री पृ. १९३॥ प्रवचन डायरी १९५६-५७, आचार्य तुलसी
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