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हैं जो श्रावक वर्ग के लिए है। ये व्रत, पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और शिक्षाव्रत हैं। वैसे पंच महाव्रतों का गुणगान जैन धर्म के सिद्धान्तों के रूप में प्रसिद्ध है, जिस में (१) अहिंसा (२) सत्य (३) अस्तेय (४) ब्रह्मचर्य और (५) अपरिग्रह गिनाये जाते हैं। ये पांचों व्रत श्रावक और श्रमण दोनों के लिए हैं, अन्तर केवल इतना ही है कि श्रमण जीवन में उनका पालन पूर्ण रूप से करता है और गृहस्थ उनका पालन आंशिक रूप से करता है। ४
अणुव्रत के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का ही समावेश है किन्तु श्रावक अपनी-अपनी क्षमता एवं स्थिति के अनुसार उसका पालन करते हैं।
गुणव्रत के अन्तर्गत दिशाव्रत, उपभोग, परिभोग परिमाण व्रत एवं अनर्थदण्ड का समावेश किया गया है।
शिक्षाव्रत के अन्तर्गत सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास एवं अतिथि संविभाग भेद किये गये
अहिंसा व्रत - अहिंसा का पूरा आचरण महाव्रत कहलाता है और आंशिक रूप से पालन करना अणुव्रत कहा जाता है। प्रश्न व्याकरण वृति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि जहाँ अहिंसा के नामों का उल्लेख किया गया है वहाँ दया, दान, सेवा अभय आदि का उल्लेख भी अहिंसा के अन्तर्गत ही है।
१/१ का उदाहरण देते हए बलदेव उपाध्याय अपनी पस्तक 'भारतीय दर्शन में लिखिते हैं “इस प्रकार मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को क्षति न पहुंचाना सब पर समान भाव से दया करना, अभय दान देना, प्राणिमात्र की सेवा करना अहिंसा के रूप हैं।"५ अहिंसा व्रत के रूप में "श्रमण को ", डॉ. सागरमल जैन का कथन है, “सर्वप्रथम स्व और पर की हिंसा से विरत होना है' काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दूषित मनोवृत्तियों के द्वारा आत्मा के स्वगुणों का विनाश करना स्व हिंसा है। दूसरे प्राणियों को पीड़ा एवं हानि पहुंचाना पर हिंसा है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि भिक्षु जगत में जितने भी प्राणी हैं उनकी हिंसा जानकर अथवा अनजान में न करें, न करावें और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन ही करें।” ५ किन्तु एक सांसारिक व्यक्ति अथवा गृहस्थ के लिए जीवन निर्वाह हेतु हिंसा से बचना असम्भव है इस कारण गृहस्थ के लिए पाँच अहिंसा अणुव्रत बताये गये हैं -
__ (क) आरम्भिक हिंसा - भोजन बनाने, आग जलाने, गमन करने आदि आरम्भिक कार्यों में बहुत से छोटे-छोटे जीवों की हिंसा हो जाती है जिस से सर्वथा बचना गृहस्थ के लिए असम्भव है।
(ख) औद्योगिक हिंसा - कृषि आदि व्यवसायों में बहुत से छोटे-छोटे जीवों की रक्षा करना असम्भव है। अतः ऐसी हिंसा यदि होती है तो गृहस्थ के लिए क्षम्य है।
(ग) विरोधी हिंसा - मनुष्य को अपनी, अपने परिवार के सदस्यों, समाज व राष्ट्र की रक्षा डाकू, लुटेरे, असामाजिक प्राणियों से करनी पड़ती है। ऐसी दशा में मनुष्य को अपनी आत्म शक्ति के
४. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन- डॉ. सागरमल जैन, पृ. ३३१ ५. भारतीय दर्शन- बलदेव उपाध्याय पृ. ६५-६६। ६. दशवैकालिक सूत्र ६/१०; जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन- डॉ. सागरमल
जैन, पृ. ३३२॥
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