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इस संबंध में ही महाकवि, भक्त सूरदार जी का यह पद भी पुनः पुनः चिंतनीय है - " मो सम कौन कुटिल खल कामी ।" इस प्रकार स्वदोष दर्शन से दूसरे के दोष व छिद्र देखने की कुत्सित वृत्ति का
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संक्रमण हो जायेगा वही हमारे लिए सदवृत्ति बनकर उपकारक हो जायेगी। इससे दूसरों का तिरस्कार करने की आदत बदल जायेगी। जिससे परस्पर ईर्ष्या, क्रोध, द्वेष, बैर, की भावना खतम होकर महज प्रेम व समता का वातावरण निर्मित हो सकेगा । कुछ विचारक स्वदोष दर्शकपदों को हीन भावना उत्पन्न करने वाले कह कर, उन्हें हेय बताते हैं । किन्तु यह उचित नहीं है। वस्तुतः ऐसे पदों के बोलने से हमारे अंतर में रहे अहंकार और ममकार पर चोट पड़ती है, जिससे ऐसे पद अच्छे नहीं लगते। ऐसे पदों के बोलने से कषायें घटती है और नम्रता सरलता लघुता व समता जीवन में विकसित होती है।
(३) सर्व भूत आत्मीय भावना सब प्राणियों में अपने समान आत्मा है, ऐसा निश्चय कर सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भावना का विकास करें। जो जीव अजीव द्रव्यों के स्वरूप को जानता है वह विद्वान है, किन्तु जो स्वरूप जानने के साथ अन्य सभी जीवों के साथ आत्मीय भाव रखता है वह पंडित है । कहा भी हैं
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हम मात्र विद्वान ही न बने किन्तु समता योग साधना के उपासक हो सच्चे पंडित भी बने । समता
भावना का प्रेरक एक पद प्रस्तुत
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“मातृवत परदारेसु पर द्रव्येसु लोष्ठवत् । . आत्मवत् सर्व भूतेषु, य पश्चति स पंडितः॥”
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(४) सरल सादा व संयमी जीवन सादा जीवन उच्चविचार उक्ति के अनुसार समता साधकों को अपना जीवन बाहर से सादगी व संयमित और अंतर में सरलता युक्त बनाना आवश्यक है। जिनका जीवन सादा, सरल व संयमित नहीं वे समता दर्शन के पात्र नहीं हो सकते। तन, मन, वाणी व धन चारों पर नियंत्रण आवश्यक है। तन के असंयम से व्याधि मन के संयम से आधि, धन के असंयम से उपाधि और वाणी के असंयम से विवादी स्थितियाँ बन जाती है। ये सब असमाधि और विषमता पैदा करती है। इसके विपरीत सरल सादी संयमी दशा जीवन में समाधि लाती है।
"कोई जीव नहीं जग मांहि, जो रहा सगा नहीं तेरा । फिर क्यों करे किसी से बैर, दो दिन का यहाँ बसेरा । दो दिन का यहाँ बसेरा, सब ना -समझी का फेरा। समता दीप जला हो जाय, जीवन का दूर अंधेरा ॥” १४
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(५) सहिष्णुता और मधुर व्यवहार - सज्जन दुर्जन शत्रु मित्र सभी के प्रति हमारा व्यवहार उदार एवं सहृदयता पूर्ण होना चाहिए। 'सव्य जग तू समयाणु पेही' अनुसार सर्व जगत को 'वसुदैव कुटुम्बकम्' वत् समझकर विरोधियों के प्रति भी उदारता व प्रेम का व्यवहार करे । 'वचने का दारिद्रता ?” के
चाणक्य नीति १२ / १३
स्वरचित मैत्री भावना पद से।
सूत्र कृतांग २ / ३ / ९३०
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