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_ 'परिकम्म ववहारों रज्जु रासी कलासवण्णोय।
जावन्तावति वग्गो घणो ततः वग्गावग्गो विकप्पो व॥ ५ अर्थात् 'परिकर्म (मूलभूत प्रक्रियाएँ), व्यवहार (विभिन्न विषय), रज्जु (ज्यामिति), राशि (समुच्चय, त्रैराशिक), कला सवर्ण (भिन्न सम्बन्धी कलन), यावत-तावत (सरल समीकरण), वर्ग (वर्ग समीकरण), धन (धन समीकरण), वर्ग-वर्ग (द्विवर्ग समीकरण) एवं विकल्प (क्रमचय-संचय) गणित के ये दश विषय हैं। इससे स्पष्ट होता है, कि ईसा के ४०० वर्ष पूर्व ही जैनाचार्यों को इन विषयों का समुचित ज्ञान हो गया था। परवर्ती विद्वानों ने पर्याप्त रूप से इन्हें पल्लवित एवं पुष्पित किया।
गणित में अभी तक सबसे अधिक क्रांतिकारी कदम हुआ है स्थान-मान-संकेत की दशमलव पद्धति का आविष्कार जो भारतवासियों की ही देन है। किसी भी संख्या को सरलता से लिखने के लिए दश अंक (शून्य एवं १ से v.तक) पर्याप्त हैं। उपलब्ध पुरालेख सम्बन्ध प्रमाणों में यह प्रमाणित होता है कि इसका
आविष्कार प्रथम शताब्दी ई.पू. या इससे पूर्व ही हो चुका था। जैन आगम ग्रंथों से भी इसकी पुष्टि होती है। जैनों को अंतरिक्ष एवं समय की माप के लिए बहुत बड़ी-बड़ी संख्याओं की आवश्यकता पड़ती थी जिसके लिए यह पद्धति बहुत ही लाभप्रद सिद्ध हुई। अनुयोगद्वार सूत्र (प्रथम शताब्दी ई.पू.) के अनुसार एक शीर्ष प्रहेलिका = (८४०००००)२८ पूर्वी ५। आर्यभट प्रथम (४७६ ई.) के समकालीन अथवा समीपवर्ती जैन दार्शनिक यतिवृषभ की कृति तिलोय पण्णती में काल-माप एवं लोक माप के लिए विशाल संख्याओं एवं इकाइयों को परिभाषित किया गया है। इनमें से काल की सबसे बड़ी संख्यात इकाई अचलात्म है जिसका मान (८४)३१४(१०)° वर्ष है। पखंडागम (प्रथमशताब्दी) इस पर लिखी टीका धवला (९वीं शताब्दी) गणित सार-संग्रह आदि ग्रंथों में तो स्थानमान पद्धति का उपयोग हुआ है तथा उसकी विस्तृत रूप से चर्चा भी है। इन ग्रंथों में ४० पदों तक स्थानमान की सूची प्रस्तुत की गयी है। जहाँ भारत में यह प्रणाली बहुत पूर्व से ही प्रचलित थी, वहाँ पाश्चात्य देशों में फिवोनकी, जोन आफ हैलीफाक्स, पीसा के क्योनार्डों आदि विद्वानों की रचनाओं में १२वी १३वीं शताब्दी में इसका उल्लेख मिलता है। इस तरह यूरोप के विभिन्न देशों ने इस पद्धति को अपनाया जो आज प्रायः समस्त संसार में प्रचलित है।
__ पूर्णांक संख्याओं की तरह भित्रों के विकास में भी जैनाचार्यों का अति विशिष्ट स्थान है। भिन्नों का लेखन एवं तत्सम्बन्धी संक्रियाओं के साथ-साथ विभिन्न सूत्र भी सूर्यप्रज्ञप्ति (५ वीं शताब्दी ई.पू.), स्थानांग सूत्र, तिलोय पण्णती, षट्खंडागम, धवला आदि प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध है। महावीराचार्य ने तो भित्रों से सम्बन्धित सारे तत्वों को प्रतिपादित किया है।"
उत्तराध्ययन सूत्र (३०० ई.पू.) एवं अनुयोगद्वार सूत्र में गणितीय राशि की घातों को दर्शाने की विधि स्पष्ट रूप से अंकित है जिससे ज्ञात होता है कि प्रथम शताब्दी इ.पू. या उसके पूर्व ही जैनाचार्यों को घातांकों के नियमों का ज्ञान हो गया था। अनुयोगद्वार सूत्र में प्रथम वर्ग, द्वितीय वर्ग आदि प्रथम मूल, द्वितीय मूल आदि का प्रयोग पाया जाता है। साथ ही संसार की जनसंख्या बताने के लिए २६४४२३२=२ ६ का व्यवहार हुआ है। धवला में तो घातांक सम्बन्धी विभिन्न नियमों का उपयोग भी हुआ है जिन्हें निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है :-xm. xn = x m+n, xm/xn = xm-n, (xmon = xmn आदि। १० इन नियमों के उल्लेख से यह सुनिश्चित होता है कि तत्कालीन जैनाचार्यों को घातांक के इन नियमों का ज्ञान हो गया था। ये नियम इसी रूप में आज भी प्रचलित हैं।
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