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(१२ वीं शताब्दी) ने श्रीधराचार्य द्वारा स्थापित इस विधि को निम्न रूप में उद्धत किया है :
'चतुराहत वर्गसमै रूपैः पक्षद्वयं गणयेत् । अव्यक्त वर्ग रूपैर्युक्तो पक्षों ततो मूलम् ॥'
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अर्थात् 'समीकरण के दोनों पक्षों को असात राशि के वर्ग के गुणांक के चौगुने से गुणा करें। दोनों में अज्ञात राशि के मौलिक गुणांक वर्ग को जोड़ दें। इस क्रिया की सहायता से द्विघातीय समीकरण
-bb2-4ac 2a
2 ax
+ 4x + C = o
के मूल x =
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महावीराचार्य का गणित के क्षेत्र में श्लाघनीय योगदान है। उनका गणित सम्बन्धी महत्वपूर्ण ग्रंथ है गणित-सार-संग्रह जिसकी रचना पाठ्य पुस्तक की शैली में की गयी है। इसमें नियमों का प्रतिपादन उदाहरणों के साथ किया गया है। सर्वप्रथम उन्होंने ही घोषणा की कि ऋणात्मक राशि का वर्गमूल नहीं हो सकता। उन्होंने इस सम्बन्ध में प्रतिभापूर्ण निष्कर्ष देकर काल्पनिक राशियों की खोज के लिए मार्ग प्रशस्त किया। काल्पनिक राशि की जो परिकल्पना उन्होंने ९वीं शताब्दी में की वही यूरोप में कोंसी ने १८४७ ई. में की। वहीं सर्वप्रथम भारतीय गणितज्ञ हैं जिन्होंने गुणोत्तर श्रेणी के योग के लिए व्यापक सूत्र प्रतिपादित किया जो अभी तक प्रचलित है २३ साथ ही उन्होंने क्रमचय-संचय के लिए व्यापक सूत्र की स्थापना की जो यूरोप में १६३४ ई. में आविष्कृत हुआ । इसी तरह अंकगणित ज्यामिति क्षेत्रमिति आदि शाखाओं में भी उनका योगदान स्तुत्य है । कतिपय ज्यामितीय आकृतियों के क्षेत्रफल के सूत्रों की उन्होंने ही सर्वप्रथम स्थापना की। निम्न वृत्त, उन्नत वृत्त, कंबुक वृत्त, दीर्घवृत्त, अन्तश्चक्रवाल वृत्त, वृश्चिक्रवाल वृत्त, हस्तंदत क्षेत्र, प्रणवाकार, यवाकार, मुरजाकार, वज्राकार क्षेत्र आदि आकृतियों के क्षेत्रफल निकालने की विधि उन्होंने दी। चक्रीय चतुर्भुज सम्बन्धी उनके द्वारा स्थापित सूत्र शत प्रतिशत आधुनिक रूप का ही है। २६ महावीराचार्य के अतिरिक्त राजादित्य, हरिभद्रसूरि, रलेखर सूरि, ठक्कर फेरू, सोमतिलक, महिमोदय, हेमराज, पं. टोडरमल आदि जैनाचार्यों ने भी अपनी अपनी रचनाओं में गणितीय सूत्रों का विश्लेषण किया । फलस्वरूप जैन गणित का उत्तरोत्तर विकास होता रहा ।
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उपर्युक्त सिंहावलोकन से यह अब स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने गणित के उन्नयन में श्लाघनीय योगदान दिया है। तथ्य भी प्रमाणित होता है कि उनके द्वारा प्रतिपादित स्थापित मौलिक गणितीय सिद्धान्त अभी भी व्यापक रूप में प्रचलित है। अतः वर्तमान संदर्भ में भी जैन गणित की उपादेयता उसी रूप में है जिस रूप में प्राचीन काल में थी । आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्न ग्रंथाकरों में उपलब्ध, उपेक्षित पांडुलिपियों का अध्ययन एवं चिन्तन-मनन हो जिससे गणित में जैनाचार्यों के अवदान का सही-सही मूल्यांकन हो सके।
संदर्भ सूची
१. आर. शामशास्त्री (सं.) वेदांग ज्योतिष, मैसूर, १,३६, श्लोक ४
२.
लक्ष्मीचन्द्र जैन (सं.) गणित-सार-संग्रह, शोलापुर १, ६३, १., पृ. २
३.
४.
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वही, १.१६, पृ. ३
परमेश्वर का भारतीय गणित के अंध युग में जैनाचार्यों की उपलब्धियाँ, साध्वीरल कुसुमावती अभिनन्दन ग्रंथ, पृष्ठ ३४ - ७४।
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