Book Title: Mahasati Dwaya Smruti Granth
Author(s): Chandraprabhashreeji, Tejsinh Gaud
Publisher: Smruti Prakashan Samiti Madras

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Page 430
________________ नहीं होती। प्राचीन आचार्यों ने सिद्धि-प्राप्ति के लिये मानवों की रुचि-विचित्रता का ध्यान रखकर अनेक प्रकार के साधनों के कथन किये हैं। किन्तु उनमें 'मन्त्र' द्वारा साधना करने को सर्वोत्तम साधन बतलाया है। तन्त्रशास्त्रों में भी स्वात्मबोध एवं स्वरूपज्ञान तथा सांसारिक सन्तापों की निवृत्ति के लिये मन्त्र-साधना को ही सर्वाधिक मान्यता दी है। मन्त्र का स्वरूप-निरूपण करते हुए ‘महार्थमञ्जरी' कार ने तो कहा है कि - __ मननमयी निजविभवे निजसोचमये प्राणमयी। कवलित-विश्व-विकल्पा अनुभूतिः काऽपि मन्त्रशब्दार्थः॥ इसके अनुसार सर्वज्ञता और सर्वकर्तृता-शक्ति से सम्पन्न अपने ऐश्वर्य का बोध कराना तथा अल्पज्ञता और अल्पकर्तृतारूपी सङ्कचित शक्ति से उत्पन्न दीनता, हीनता, दरिद्रता आदि सांसारिक सन्तापों से मुक्त करना एवं कुत्सित वासनाओं के सड़कल्प-विकल्पों का विनाश करके 'सोऽहम्' की भावना से भावित अनुभूति होना ही मन्त्र-शब्द का तात्पर्यार्थ, स्वरूप या प्रयोजन है। मन्त्र की महिमा की गरिमा के कारण ही मन्त्रों की अनन्तता बनी है। संसार के प्रत्येक प्रमुख धर्म की साधना-पद्धतियों में मन्त्र का माहात्म्य चिर-स्थिर है। जैनधर्म में भी 'मन्त्र' की महिमा कम नहीं है। जैनागमों में तत्सम्बन्धी वर्णन अनेक स्थलों पर प्राप्त हैं। जैसा कि 'जैनधर्म' की परिभाषा के रूप में मनीषियों का मन्तव्य है - आत्मा के लिये आत्मा द्वारा प्राप्य और आत्मा में प्रतिष्ठित होनेवाला धर्म जैन धर्म है' -इसी मन्तव्य के पोषण हेतु आत्मविजय के चिरन्तन मार्ग में आत्मा के सच्चिदानन्द-स्वरूप की उपलब्धि के साधक मन्त्रों का उल्लेख जिनवाणी के रूप में संगृहीत आगमों में प्राप्त होता है। जिनेन्द्र, अर्हत् तीर्थंकर, सिद्ध आदि से सम्बद्ध मन्त्र भी अर्धमागधी भाषा में वहीं निर्दिष्ट हैं और उत्तरवर्ती व्याख्याग्रन्थों तथा विधि-ग्रन्थों में संस्कृत भाषामय मन्त्र प्रतिपादित हैं। उत्तरोत्तर इस प्रवृत्ति का विकास भी हुआ है और पद्धति-विषयक परिष्कार भी। जिससे मन्त्रों के सभी रूप निखर आये हैं जिनमें कूट-बीज, बीज, बहुबीज, नाम-मत्र, माला मन्त्र, पद्यात्मक मन्त्र, स्तुतिरूप मन्त्र, कामना-पूरक मन्त्र और रोगादि दोष-निवारक मन्त्र तो हैं ही, साथ ही अधिष्ठायिका देवियों के, यक्ष-यक्षिणियों के तथा अन्यान्य अनेक मान्यतानुकूल सिद्ध, सूरि आदि के मन्त्र भी उपलब्ध होते हैं। और जब मन्त्र हैं तो उनकी ‘साधना-पद्धति' भी है ही। यहाँ हमारा मुख्य प्रतिपाद्य जैनमन्त्रों की साधना-पद्धति है, अतः इस विषय पर कुछ विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं। ना-पद्धति और उसके प्रकार - साधना की समस्त पद्धतियों का आधार वे क्रियाएँ हैं. जिनके करने से साधना की पात्रता आती है. उपासना के अंग-उपांगो का निर्वाह होता है जिन आन्तर-पूजा-विधानों के साथ ही न्यास, जप एवं आन्तरिक इष्ट-चिन्तन की विधाओं का भी समावेश होता है। ये पद्धतियाँ शास्त्रोपदिष्ट और अनुभवसिद्ध साधकों द्वारा संक-लित भी हैं तथा संकतरूप में सूचित भी। जैन-मन्त्र-साधना में 'पञ्चनमस्कार. सिद्धचक्र. ऋषिमण्डल' आदि के पजा-विधान ग्रन्थस हैं। पद्मावती देवी, चक्रेश्वरी देवियाँ, मणिभद्र, घण्टाकर्ण और सिद्धायिका, श्रीदेवी, ज्वालामालिनी के कल्पों की संख्या भी न्यून नहीं है। इस प्रकार की विविधता से पूर्ण साधनाओं के लिये कतिपय विधियाँ तो सर्वसामान्य ही रहती हैं किन्तु विशेषपूजा के लिये विशेष पद्धतियों का पालन आवश्यक होता है। यहाँ हम सूची प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसमें सड़कतरूप से नाम-निर्देश तथा अन्य आवश्यक निर्देश समाविष्ट हैं। यथा - (१०७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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