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और भय विमुक्त होने पर पुनः अंग-प्रत्यंग फैलाकर चलना-फिरना प्रारंभ कर देता है, उसी प्रकार संयमी व्यक्ति अपने साधना मार्ग पर बड़ी सतर्कता पूर्वक चलता है। संयम की विराधना का भय उपस्थित होने पर वह पंचेन्द्रियों व मन को आत्मज्ञान (अंतर) में ही गोपन कर लेता है
जहा कुम्भे स अंगाई सए देहे समाहरे
एवं पावाइं मेहावी अज्झप्पेण समाहरे ॥ सूत्रकृतांग १.८.६
संयमी व्यक्ति सर्वोदयनिष्ठ रहता है। वह इस बात का प्रयत्न करता है कि दूसरे के प्रति वह ऐसा व्यवहार करे जो स्वयं को अनुकूल लगता हो। तदर्थ उसे मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, और माध्यस्थ्य भावनाओं का पोषक होना चाहिए। तभी सुखी ओर निरोग है, किसी को किसी प्रकार का कष्ट न हो, ऐसा प्रयत्न करे ।
सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सन्तु सर्वे निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात्॥ मा कार्षीत कोऽपि पापानि मा च भूत् कोऽपि दुःखतः मुप्यतां जगदप्येषा मति मैत्री निगयते ॥ यशस्तिलकचम्पू उत्तरार्ध
दूसरों के विकास में प्रसन्न होना प्रमोद है । विनय उसका मूल साधन है। ईर्ष्या उसका सबसे बड़ा अन्तराय है। कारुण्य अहिंसा भावना का प्रधान केन्द्र है। दुःखी व्यक्तियों पर प्रतीकात्मक बुद्धि से उनमें उद्धार की भावना ही कारुण्य भावना है। माध्यस्थ्य भावना के पीछे तटस्थ बुद्धि निहित है। निःशंक होकर क्रूर कर्मकारियों पर अत्मप्रशंसकों पर, निंदकों पर उपेक्षाभाव रखना मध्यस्थ भाव है। इसी को समभाव भी कहा गया है। समभावी व्यक्ति निर्मोही, निरहंकारी, निष्परिग्रही, स्थावर जीवों का संरक्षक तथा लाभ-अलाभ में, सुख-दुःख में, जीवन-मरण में, निन्दा-प्रशंसा में मान-अपमान में, विशुद्ध हृदय से समदृष्ट होता है। समजीवी व्यक्ति ही मर्यादाओं व नियमों का प्रतिष्ठायक होता है। वही उसकी समचरिता है। वही उसकी सर्वोदयशीलता है।
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महावीर की अहिंसा पर विचार करते समय एक प्रश्न हर चिन्तक के मन में उठ खड़ा होता है कि संसार में जब युद्ध आवश्यक हो जाता है, तो उस समय साधक अहिंसा का कौन-सा रूप अपनायेगा । यदि युद्ध नहीं करता है तो आत्मरक्षण और राष्ट्ररक्षा दोनों खतरे में पड़ जाती है और यदि युद्ध करता है तो अहिंसक कैसा ? इस प्रश्न का समाधान जैन चिन्तकों किया है। उन्होंने कहा है कि आत्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा करना हमारा कर्तव्य है। चंद्रगुप्त, चामुण्डराय, खारवेल आदि जैसे धुरन्धर जैन अधिपति योद्धाओं ने शत्रुओं के शताधिक बार दांत खट्टे किए हैं। जैन साहित्य में जैन राजाओं की युद्धकला पर भी बहुत कुछ लिखा मिलता है। बाद में उन्हीं राजाओं को वैराग्य लेते हुए भी प्रदर्शित किया गया है। यह उनके अनासक्ति भाव का सूचक है। अतः यह सिद्ध है कि रक्षणात्मक हिंसा पाप का कारण नहीं है। ऐसी हिंसा को तो वीरता कहा गया है। यह विरोधी हिंसा है। चूर्णियों और टीकाओं में ऐसी हिंसा को गर्हित माना गया है। सोमदेव ने इसी स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए स्पष्ट कहा है
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