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५. धर्मकथा - सर्वज्ञप्रणीत अहिंसादि लक्षण रूप धर्म का कथन (अनुयोग) धर्म-कथा है। इसे धर्मोपदेश भी कहते हैं। ६४ धर्मकथा के अन्तर्गत त्रेसठ शलाका पुरुषों का चरित्र पढ़ना-चित्त का विषयों से रोक कर शान्तिदायी पाठों का अभ्यास तथा उन्हें कण्ठस्थ करना, चिन्तन-मनन के बाद तत्व रहस्य जब स्वयं को उपलब्ध हो जाएं तब विचारामृत को जन-जन के समक्ष प्रस्तुत करना, दूसरों को सत्य के अन्वेषण हेतु मार्ग बताना, तथा सन्देह-निवृति हेतु पदार्थ का स्वरूप बताना, श्रुतादि धर्म की व्याख्या करना, तथा श्रोताओं में रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लिए स्वतंत्र रूप से धार्मिक उपदेशादि द्वारा बर्द्धित करना आदि परिगणित हैं।
प्रमुखतः दिगम्बरमतानुसार प्रथमानुयोग रूप तथा श्वेताम्बर मतानुसार धर्मकथानुयोग रूप शास्त्र 'धर्मकथा' में परिगणित है।
धर्मोपदेश, अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोग-वर्णन ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। ६६ ___ मुनि स्वयं तो लौकिकी कथा, विकथा, ६७ तथा असच्छास्त्रों के अध्ययन से दूर रहते ही हैं, दूसरों को भी धर्मकथा में प्रवृत्त कराते हैं। ६८ शास्त्र-ज्ञान भी एक सद्दन है। ६९ इस ज्ञान-दान के सम्बन्ध में भी पात्र-अपात्र का विचार करना चाहिए तथा स्वयं को भी योग्य उपदेशक के रूप में प्रतिष्ठापित करना चाहिये। ७° सन्मार्गोपदेश के समान कोई परोपकार नहीं। ७१ अतः धर्मकथा का महत्व सभी दृष्टियों से सिद्ध होता है।
धर्मकथा के फल - धर्मकथा से कर्मनिर्जरा होती है, साथ ही धर्मशास्त्र प्रवचन की प्रभावना भी। प्रभावना के फलस्वरूप भविष्य में कल्याणकारी फल वाले (कुशल) कर्म ही अर्जित होते हैं। ७२
६४. सर्वार्थ. ९.२५। ६५. (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, ८८॥
(ख) महापुराणा १.१२०॥ तत्त्वा ९.२५ भाष्य टीका। विकथा सात प्रकार की होती है- (१) स्त्रीकथा (२) भत्तकथा (भोजन सम्बन्धिनी कथा) (३) देशकथा (४) राजकथा (५) मृदुकारुणिकी (विपत्तिग्रस्त व्यक्ति को लक्ष्य कर करुणा रसप्रधान वार्ता), (६) दर्शनमोहिनी सम्यग्दर्शन व धर्म श्रद्धा को कम करने वाली कथा, (७) चारित्र भेदिनी। (क) मूलाचार ८५४, ८५७
(ख) दशवै. ८.४१॥ ६९. (क) वसुनन्दि आवकाचार २३३। ।
(ख) सर्वार्थ. ६.२४। उपदेशक के स्वरूप, धर्मोपदेश की विधि आदि के विषय में देखे- सूत्र कृतांग १.१४, १८-२७;
१.१११.२४; १.१३.२०,२२, (म.वा.पृ.३२७) असाधु धर्मोपदेश के अपात्र है- (१.१४.२० बहीं)। ७१. आदिपुराणा १.७६। ७२. (उत्त. २९.२३।
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