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स्वाध्याय से ज्ञान प्रतिबन्धक कर्मों की निर्जरा होती है। सूत्रों के अध्ययन से, मननादि से जीवों के प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणी से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा बताई गई। यह निर्जरा श्रोता व व्याख्याता दोनों को होती है। १४८
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स्वाध्याय से भावसंवर (बुरे भावों का रुकना) नया नया संवेग ( धर्म में श्रद्धा) रत्न-त्रय में निश्चलता, तप, भावना (गुप्तियों में तत्परता ) आदि गुण उत्पन्न होते हैं। स्वाध्याय का फल प्रशस्ताध्यवसाय, अतिचार विशुद्धि तता बुद्धिनिर्मलता आदि भी हैं। साधक शास्त्रों का जैसे-जैसे अवगाहन करता है, वैसे, वैसे उसे अधिकाधिक परमानन्द का अनुभव होता जाता है । स्वाध्याय से तपस्या में वृद्धि तदनुरूप निर्जरा में वृद्धि, रत्नत्रय में वृद्धि आदि अनेक महनीय फल हैं जिससे साधना - मार्ग में स्वाध्याय - योग की महती उपयोगिता स्वतः सिद्ध हो जाती है।
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उपाचार्य एवं अध्यक्ष जैन दर्शन विभाग श्री ला. ब. शा राष्ट्रीय विद्यापीठ (मान्यविश्वविद्यालय) करवारिया, सराय
नई दिल्ली - १६
१४७. धवला ९.४.१.१
१४८. धवला ९.५.५.५०, तिलोयप १.३७, झै. सि, को. ४.५२५ ।
१४९. भगवती आरा १००
१५०. सवार्थ ९.२५, राजवार्तिक- ९.२५.६,
१५१. भगवती आरा. १०५, १०६.
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