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देखिए -
इनकी रचनाएँ मुख्यतः स्तवनात्मक और उपदेशात्मक है। इन्होंने पहेलियाँ भी लिखी हैं। उदाहरण
१६ - रत्नकुंवर जी सम्प्रदाय की प्रवर्तिनी रही हैं। मणिचूड़ चारित्र प्रकाशित हुई है।
आदि अखर विन जग को ध्यावे, मध्य अखर बिन जग संहारे । अन्त अखर बिन लागे मीठा, वह सबके नयनों में दीठा ॥
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दाह वह अंत दह रह मध्य- अरू मांय । तुम दरसन बिन होत है, दरसन से जाय ।
उक्त श्रमणी कवयित्रियों के अतिरिक्त श्राविका कवयित्रियों में चम्पादेवी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। ये देहली निवासी लालासुन्दर लाल टोंग्या की धर्म पत्नी थी। इनके पिता अलीगढ़ निवासी श्री मोहनलाल पाटनी थे। इनका जन्म संवत् १९१३ के आसपास हुआ था । ६६ वर्ष की आयु में ये बीमार पड़ गई। तब अर्हद भक्ति में तन्मय हो कर इन्होंने कई पद लिखे। जिनका संग्रह " चम्पा शतक" नाम से डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल ने सम्पादित किया है।
उत्तर = दर्द
ये स्थानकवासी परम्परा के पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज के संवत् १९९२ में ५१ ढालों में निबद्ध इन की एक रचना श्री रत्नचूड़
वर्तमान में भी विभिन्न सम्प्रदायों में कई जैन श्रमणियाँ काव्य साधना में लीन है। तेरा पंथ. सम्प्रदाय की हिन्दी कवयित्रियों के सम्बन्ध एक निबन्ध उदयपुर से प्रकाशित होने वाली शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। जिसमें श्रमणी जयश्री, श्रमणी मंजूला, श्रमणी स्नेह कुमारी श्रमणी कमलश्री, श्रमणी रत्नश्री, श्रमणी कानकुमारी, श्रमणी फूलकुमारी श्रमणी कमलश्री, श्रमणी रत्नश्री, श्रमणी कान कुमारी, श्रमणी फूलकुमारी श्रमणी मोहना, श्रमणी कनक प्रभा, श्रमणी यशोधरा, श्रमणी सुमनश्री तथा श्रमणी कनकश्री की काव्य रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया है।
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उत्तर काजल
इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि जैन काव्य धारा का प्रतिनिधित्व करने वाली इन श्रमणी कवयित्रियों का हिन्दी कवयित्रियों में एक विशिष्ट स्थान है। इन्होंने न तो डिंगल कवयित्रियों की भाँति अंतःपुर में रहकर रानियों के मनोविनोद के लिये काव्य रचना की और न किसी की प्रतिस्पर्धा में ही लेखनी को मोड़ दिया । इन्होने प्राणिमात्र को अपना जीवन निर्मल, निर्विकार और सदाचार बनाने का उपदेश दिया है। स्वानुभूतियों से निसृत होने के कारण इनके उपदेश सीधे स्वयं को स्पर्श करते हैं । ६
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मुनि द्वय अभिनन्दन ग्रन्थ (व्यावर) पृष्ठ ३०३ से ३०७ तक
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