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हो ।
सौषिर वर्ग वे शब्द आते हैं। जो बांस, शंख, आदि में वायु-प्रतर के कम्पन से उत्पन्न
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वैस्रसिक -मेघ गर्जन आदि प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न होने वाले शब्द वैखसिक कहलाते हैं। जैन दर्शन में शब्द को केवल पौगलिक कहकर ही, विश्राम नहीं लिया, किन्तु उस की ६५ उत्पत्ति, शीघ्रगति, लोकव्यापित्व स्थायित्व आदि विभिन्न पहलुओं पर गम्भीर रूप से विचार किया है । शब्द पुद्गल स्कन्धों के संघात और भेद से उत्पन्न होता है । वक्ता बोलने के पूर्व भाषा परमाणुओं को ग्रहण करता है। भाषा के रूप में उन का परिणमन करता है। तीसरी अवस्था " उत्सर्जन " है । उत्सर्जन के द्वारा बाहर निकले हुए भाषा - पुद्गल आकाश में फैलते हैं। वक्ता का प्रयत्न यदि मन्द है तो वे पुद्गल अभिन्न रहकर जल तरंग - न्याय” से असंख्य योजन तक फैल कर शक्तिहीन हो जाते हैं। और वक्ता का प्रयत्न तीव्र होता है। तो वे भिन्न होकर दूसरे असंख्य स्कन्धों को ग्रहण करते करते अति सूक्ष्म काल में लोकान्त तक चले जाते हैं। हम जो सुनते हैं, वह वक्ता का मूल शब्द नहीं सुन पाते । वक्ता का शब्द - श्रेणियों-आकाश प्रदेश की पत्तियों में फैलता है। ये श्रेणियाँ वक्ता के पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, ऊँचे व नीचे छहों दिशाओं में है । हम शब्द की समश्रेणी में होते हैं। तो मिश्र शब्द सुनते हैं अर्थात् वक्ता द्वारा उच्चारित शब्द द्रव्यों और उन के द्वारा वासित शब्द- द्रव्यों को सुनते हैं। यदि हम विश्रेणी अर्थात् विदिशा में होते हैं। तो केवल वासित शब्द ही सुन पाते हैं। मिश्र शब्द नहीं सुनते हैं । २ - बन्ध - बन्ध शब्द का परमाणुओं का भी बन्ध हो सकता है। या एक से अधिक परमाणुओं का पुद्गल - परमाणुओं अर्थात् कार्मण वर्गणाओं का जीवद्रव्य के साथ भी बन्ध होता है ।
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अर्थ है बन्धना । जुड़ना, मिलना, संयुक्त होना। दो या दो से अधिक और दो या दो से अधिक स्कन्धों का भी होता है। इसी तरह एक एक या एक से अधिक स्कन्धों के साथ भी बन्ध होता है।
बन्ध की यह उल्लेखनीय विशेषता है कि उस का विघटन या खण्डन या अन्त अवश्यम्भावी है। क्योंकि जिस का प्रारम्भ होता है। उस का अन्त भी अवश्यभेव होता है। एक नियम यह भी है कि जिन परमाणुओं या स्कन्धों अथवा स्कन्ध परमाणुओं या द्रव्यों का परस्पर बन्ध होता है। वे परस्पर सम्बद्ध रह कर भी अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रखते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के साथ क्षीर और नीर की भांति अथवा रासायनिक प्रतिक्रिया से सम्बद्ध होकर भी अपनी पृथक् सत्ता नहीं खो सकता । उस के परमाणु कितने ही रूपान्तारिक हो जाते हैं। तथापि उन का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व सुरक्षित रहता है ।
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सर्वार्थसिद्धि - अ. ५ सू- २४!
स्थानांग सूत्र स्था. २ उद्धे. ३!
प्रज्ञापना सूत्र पद. ११ !
प्रज्ञापना सूत्र पद - ११ !
प्रज्ञापना पद ११
जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति ५ अ!
प्रज्ञापना सूत्र पद - ११
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