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स्थानांग में शुक्लध्यान के चार आलम्बन बताये गये हैं (८५) -
१. क्षान्ति (क्षमाभाव), २. मुक्ति, (निर्लोभता), ३. आर्जव (सरलता) और ४. मार्जव (मृदुता)। वस्तुतः शुक्लध्यान के ये चार आलम्बन चार कषायों के त्यागरूप ही है। शान्ति में क्रोध का त्याग है और मुक्ति में लोभ का त्याग है। आर्जव माया (कपट) के त्याग का सूचक है तो मार्दव मान कषाय के त्याग का सूचक है।
__इसी ग्रन्थ में शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख भी हुआ है किन्तु ये चार अनुप्रेक्षाएं सामान्यरूप से प्रचलित १२ अनुप्रेक्षाओं से क्वचित रूप में भिन्न ही प्रतीत होती हैं। स्थानांग ने शुक्ल ध्यान भी निम्न चार अनुप्रेक्षाएं उल्लेखित हैं (८६) -
१. अनन्तवृत्तितानुप्रेक्ष - संसार में परिभ्रमण की अनन्तता का विचार करना। २. विपरिणामानुप्रेक्षा - वस्तुओं के विविध परिणमनों का विचार करना। ३. अशुभानुप्रेक्षा - संसार, देह और भोगों की अशुभता का विचार करना। ४. अपायानुप्रेक्षा - राग-द्वेष से होने वाले दोषों का विचार करना ।
शुक्ल ध्यान के चार प्रकारों के सम्बन्ध में बौद्धों का दृष्टिकोण भी जैन परम्परा के निकट ही जाता है। बौद्ध परम्परा में चार प्रकार के ध्यान माने गये हैं -
१. सवितर्क - सविचार-विवेकजन्य प्रीतिसुखात्मक प्रथम ध्यान। २. वितर्क विचार - रहित-समाधिज प्रीतिसुखात्मक द्वितीय ध्यान।
३. प्रीति और विराग से उपेक्षक हो स्मृति और सम्प्रजन्य से युक्त उपेक्षा स्मृति सुखविहारी तृतीय ध्यान।
४. सुख-दुःख एवं सौमनस्य - दौर्मनस्य से रहित असुख अदुःखात्मक उपेक्षा एवं परिशुद्धि से युक्त चतुर्थ स्थान।
इस प्रकार चारों शुक्ल ध्यान बौद्ध परम्परा में भी थोड़े शाब्दिक अन्तर के साथ उपस्थित है। ... योग-परम्परा में भी समापत्ति के चार प्रकार बतलाये हैं, जो कि जैन परम्परा के शुक्ल ध्यान के चारों प्रकारों के समान ही लगते हैं। समापत्ति के वे चार प्रकार निम्नानुसार हैं -१. सवितर्का, २. निर्वितर्का, ३. सविचारा और ४. निर्विचारा।
शुक्ल ध्यान के स्वामी के सम्बन्ध में तत्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर मूलपाठ और दिगम्बर मूलपाठ में तो अन्तर नहीं है किंतु 'च' शब्द से क्या अर्थग्रहण करना इसे लेकर मतभेद है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार उपशान्त कषाय एवं क्षीणकषाय पूर्वधरों में चार शुक्लध्यानों में प्रथम दो शुक्लध्यान सम्भव है।
८५. ८६.
वही ४/७१ वही ४/७२
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