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श्रमणधारा और ध्यान भारतीय अध्यात्मवादी परम्परा में ध्यान साधना का अस्तित्व अति प्राचीनकाल से ही रहा है। यहाँ तक कि अति प्राचीन नगर मोहन जोदड़ों और हड़प्पा से खुदाई में, जो सीलें आदि उपलब्ध हुई हैं, उनमें भी ध्यानमुद्रा में योगियों के अंकन पाये जाते हैं । इस प्रकार ऐतिहासिक अध्ययन के, जो भी प्राचीनतम स्त्रोत हमें उपलब्ध हैं, वे सभी भारत में ध्यान की परम्परा के अतिप्राचीनकाल से प्रचलित होने की पुष्टि करते हैं। उनसे यह भी सिद्ध होता है कि भारत में यज्ञ-मार्ग की अपेक्षा ध्यानमार्ग की परम्परा प्राचीन है और उसे सदैव ही आदरपूर्ण स्थान प्राप्त रहा है।
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औपनिषदिक परम्परा और उसकी सहवर्ती श्रमण परम्पराओं में साधना की दृष्टि से ध्यान का महत्वपूर्ण स्थान रहा हुआ था। औपनिषदिक ऋषि- गण और श्रमण-साधक अपनी दैनिक जीवनचर्या में ध्यान-साधना को स्थान देते रहे हैं यह एक निर्विवाद तथ्य हैं। महावीर और बुद्ध के पूर्व भी अनेक ऐसे श्रमण साधक थे, जो ध्यान साधना की विशिष्ट विधियों के न केवल ज्ञाता थे, अपितु अपने सांनिध्य में अनेक साधकों को उन ध्यान साधना की विधियों का अभ्यास भी करवाते थे। इन आचार्यों की ध्यान साधना की अपनी-अपनी विशिष्ट विधियाँ थीं ऐसे संकेत भी मिलते हैं। बुद्ध अपने साधनाकाल में ऐसे ही एक ध्यान-साधक श्रमण आचार्य रामपुत्त के पास स्वयं ध्यान-साधना के अभ्यास के लिये गये थे। रामपुत्त के सम्बन्ध में त्रिपिटक साहित्य में यह भी उल्लेख मिलता है कि स्वयं भगवान् बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भी अपनी साधना की उपलब्धियों को बताने हेतु उनसे मिलने के लिए उत्सुक थे, किन्तु तब तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी (२)। इन्हीं रामपूत्त का उल्लेख जैन आगम साहित्य में भी आता है। सूत्रकृतांग में उनके नाम के निर्देश के अतिरिक्त अन्तकृतदशा ऋषिभाषित सम्बन्धित स्वतन्त्र अध्याय भी रहे थे। दुर्भाग्य से अन्तकृतदशा का वह अध्याय तो आज लुप्त है, किन्तु ऋषिभाषित में उनके उपदेशों का संकलन आज भी उपलब्ध है।
प्राकृत आगमों में
आदि में तो उनसे
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चुका
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जैन साधना और ध्यान
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डॉ. सागरमल जैन
Mohenjodero and Indus civilization, john Marshall vol. I page 52
Dictionary of Pali proper names, By J.P. malal sekhar (1937) Val.I P. 382-83
सूत्रकृतांग, १/३/४/२-३
स्थानांग, १० / १३३ (इसमें अन्तकृत्दशा की प्राचीन विषयवस्तु का उल्लेख है)
इसिभासियाई, अध्याय २३
वही, अध्याय २३
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