________________
मन ही है। अतः मन की सक्रियता के निरोध से ही योग-निरोध संभव है। योगदर्शन भी जो योग पर सर्वाधिक बल देता है, यह मानता है कि चित्तवृत्तियों का निरोध ही योगहै । वस्तुतः जहाँ चित्त की चंचलता समाप्त होती है, वहीं साधना की पूर्णता है, और वहीं पूर्णता ध्यान है। चित्त की चंचलता अथवा मन की भाग-दौड़ को समाप्त करना ही जैन-साधना और योग-साधना दोनों का लक्ष्य है। इस दृष्टि से देखें तो जैनदर्शन में ध्यान की जो परिभाषा दी जाती है वही परिभाषा योग दर्शन में योग की दी जाती है। इस प्रकार ध्यान और योग पर्यायवाची बन जाते हैं।
योग शब्द का एक अर्थ जोड़ना भी है (३०। इस दृष्टि से आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला को योग कहा गया है और इसी अर्थ से योग को मुक्ति का साधन माना गया है। अपने इस दूसरे अर्थ में भी योग शब्द ध्यान का समानार्थक ही सिद्ध होता है, क्योंकि ध्यान ही साधक को अपने में ही
'शद्धात्मा) या मक्ति से जोड़ता है। वस्ततः जब चित्तवत्तियों की चंचलता समाप्त हो जाती है, चित्त प्रशान्त और निष्पकम्प हो जाता है, तो वही ध्यान होता है, वही समाधि होता है और उसे ही योग कहा जाता है। किन्त जब कार्य-कारण भाव अथवा साध्य-साधन की दृष्टि से विचार करते हैं तो ध्यान साधन होता है, समाधि साध्य होती है। साधन से साध्य की उपलब्धि ही योग कही जाती है।
ध्यान और कायोत्सर्ग - जैन साधना में तप के वर्गीकरण में आभ्यन्तर तप के जो छह प्रकार बतलाए गये हैं, उनमें ध्यान और कायोत्सर्ग- इन दोनों का अलग-अलग उल्लेख किया गया है (३१।। इसका तात्पर्य यह है कि जैन आचार्यों की दृष्टि में ध्यान और कायोत्सर्ग दो भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। ध्यान चेतना को किसी विषय पर केन्द्रित करने का अभ्यास है, तो कायोत्सर्ग शरीर के नियन्त्रण का एक अभ्यास। यद्यपि यहाँ काया (शरीर) व्यापक अर्थ में ग्रहीत है। स्मरण रहे कि मन और वाक् ये शरीर के आश्रित ही हैं। शाब्दिक दृष्टि से कायोत्सर्ग शब्द का अर्थ होता है 'काया' का उत्सर्ग अर्थात् देह-त्याग। लेकिन जब तक जीवन है तब तक शरीर का त्यग तो संभव नहीं है। अतः कायोत्सर्ग का मतलब है देह के प्रति ममत्व का त्याग। दूसरे शब्दों में शारीरिक गतिविधियों का कर्ता बनकर द्रष्टा बन जाना। वह शरीर की मात्र ऐच्छिक गतिविधियों का नियन्त्रण है। शारीरिक गतिविधियाँ भी दो प्रकार की होती हैं : एक स्वचालित और दूसरी ऐच्छिक। कायोत्सर्ग में स्वचालित गतिविधियों का नहीं, अपितु ऐच्छिक गतिविधियों का नियन्त्रण किया जाता है। कायोत्सर्ग करने से पूर्व जो आगारसूत्र का पाठ बोला जाता है उसमें श्वसन-प्रक्रिया, छींक, जम्भाई आदि स्वचालित शारीरिक गतिविधियों का निरोध नहीं करने का ही स्पष्ट उल्लेख है (३२। अतः कायोत्सर्ग ऐच्छिक शारीरिक गतिविधियों के निरोध का प्रयत्न है। यद्यपि ऐच्छिक गतिविधियों का केन्द्र मानवीय मन अथवा मानवीय चेतना ही है। अतः कायोत्सर्ग की प्रक्रिया ध्यान की प्रक्रिया के साथ अपरिहार्य रूप से जुड़ी हुई है।
एक अन्य दृष्टि से कायोत्सर्ग को देह के प्रति निर्ममत्व की साधना भी कहा जा सकता है। वह देह में रहकर भी कर्ताभाव से ऊपर उठकर द्रष्टाभाव में स्थित होना है। यह भी स्पष्ट है कि चित्तवृत्तियों के
२९. योगसूत्र (पंतजलि) १/२ ३०. “युजपीयोगे” हेमचन्द्र, धातु माला, गण ७
आवश्यक सूत्र-आगारसूत्र ३२. आवश्यक सूत्र- आगार सूत्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org