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परवर्ती जैन दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों
आर्त्तध्यान और रौद्र ध्यान को ध्यान के रूप में परिगणित ही नहीं किया क्योंकि वे अन्ततोगत्वा चित्त की उद्विग्नता के ही कारण बनते हैं। यही कारण था कि दिगम्बर परम्परा ने यह मान लिया कि गृहस्थ का जीवन वासनाओं आकांक्षाओं और उद्विग्नताओं से परिपूर्ण है अतः वे ध्यान साधना करने में असमर्थ हैं।
ज्ञानार्णव में इस मत का प्रतिपादन हुआ है कि गृहस्थ ध्यान का अधिकारी नहीं है (५८) इस संबंध में उसका कथन है कि गृहस्थ प्रमाद को जीतने में समर्थ नहीं होता, इसलिए वह अपने चंचल मन को वश में नहीं रख पाता । फलतः वह ध्यान का अधिकारी नहीं हो सकता । ज्ञानार्णवकार का कथन है कि गृहस्थ का मन सैकड़ों झंझटों से व्यथित तथा दुष्ट तृष्णारूप पिशाच से पीड़ित रहता है इसलिए उसमें रहकर व्यक्ति ध्यान आदि की साधना नहीं कर सकता है। जब प्रलयकालीन तीक्ष्ण वायु के द्वारा स्थिर स्वभाववाले बड़े-बड़े पर्वत भी स्थान भ्रष्ट कर दिये जाते हैं तो फिर स्त्री-पुत्र आदि के बीच रहने वाले गृहस्थ को जो स्वभाव से ही चंचल है क्यों नहीं भ्रष्ट किये जा सकते हैं (५९) । इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए ज्ञानार्णवकार तो यहाँ तक कहता है कि कदाचित आकाश कुस गधे के सींग (क्रंग) संभव भी हो, लेकिन गृहस्थ जीवन में किसी भी देश और काल में ध्यान संभव नहीं होता (६०)। इसके साथ ही ज्ञानार्णवकार मिथ्या दृष्टियों, अस्थिर अभिप्राय वाले तथा कपटपूर्ण जीव जीने वाले में भी ध्यान की संभावना को स्वीकार नहीं करता है (६१) ।
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या गृहस्थ जीवन में ध्यान संभव ही नहीं है। यह सही है कि गृहस्थ जीवन में अनेक द्वन्द्व होते हैं और गृहस्थ आर्त और रौद्र ध्यान से अधिकांश समय तक जुड़ा रहता है। किन्तु एकान्तरूप गृहस्थ में धर्मध्यान की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । अन्यथा गृहस्थ लिंग की अवधारणा खण्डित हो जायेगी । अतः गृहस्थ में भी धर्म ध्यान की संभावना है।
यह सत्य है कि जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन के प्रपंचों में उलझा हुआ है, उसके लिए ध्यान संभव नहीं है। किन्तु गृहस्थ जीवन और गृही वेश में रहनेवाले सभी व्यक्ति आसक्त ही होते हैं, यह नहीं कहा जा सकता। अनेक सम्यक्दृष्टि गृहस्थ ऐसे होते हैं जो जल में कमलवत् गृहस्थ जीवन में अलिप्त भाव से रहते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए धर्म ध्यान की संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । स्वयं ज्ञानार्णवकार यह स्वीकार करता है कि जो साधु मात्र वेश में अनुराग रखता हुआ अपने को महान समझता है और दूसरों को हीन समझता है वह साधु भी ध्यान के योग्य नहीं है (६२) । अतः व्यक्ति में मुनिवेशधारण करने से ध्यान की पात्रता नहीं आती है। प्रश्न यह नहीं है कि ध्यान गृहस्थ को संभव होगा या साधु को ? वस्तुतः निर्लिप्त जीवन जीने वाला व्यक्ति, चाहे वह साधु हो या गृहस्थ, उसके लिए धर्म ध्यान संभव हो सकता है। दूसरी ओर आसक्त, दंभी और साकांक्ष व्यक्ति, चाहे वह मुनि ही क्यों न हो, उसके लिए धर्म ध्यान असंभव होता है। ध्यान की संभावना साधु और गृहस्थ होने पर निर्भर नहीं करती
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ज्ञानार्णव ४/१०-१५
वही - ४ / १६
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वही - ४ / १७
६१. वही - ४ / १८-१९
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ज्ञानार्णव - ४ / ३३
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