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भगवान श्रेयांसनाथ जी
भगवान वासुपूज्य जी भगवान विमलनाथ जी
भगवान अनन्तनाथ जी भगवान धर्मनाथजी
भगवान शांतिनाथ जी
भगवान कुंथुनाथ जी
भगवान अरनाथ जी
भगवान मल्लिनाथ जी
भगवान मुनि सुव्रत जी
भगवान नमिनाथ जी
भगवान अरिष्टनेमि जी
भगवान पार्श्वनाथ जी
भगवान महावीर स्वामी जी
८४०००
७२०००
६८०००
६६०००
६४०००
६२०००
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५००००
४००००
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६२०००
६२४००
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४००००
३८०००
३६०००
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चारण
वरसेना
३००००
२००००
१८०००
१६०००
१४०००
निन शासन में श्रमण और श्रमणियों को समान अधिकार एवं समान नियमों का पालन दर्शाया गया है। श्रमण और श्रमणी शब्द में मुख्य शब्द 'श्रम' है जिसका तात्पर्य स्वावलम्ब की उत्कृष्टता को घोषित करता है। ये महानुभाव अपनी दिनचर्या स्वयं के श्रम से प्रारम्भ करते हैं, तथा अपने सारे कार्य स्वयं ही करते हैं, अपने उपयोग के लिए कोई वस्तु वे गृहस्थ से नहीं मंगवाते वे स्वयं जाकर लाते हैं। ये महापुरुष संसार को सार रहित मानकर असत से सत् अन्धकार से आलोक, नश्वर से अनश्वर तथा मृत्यु से मोक्ष की ओर अग्रसर हो एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करते हैं जो कष्टकाकीर्ण होते हुए भी दुःख नाशक तथा शांति प्रदायक है। जिन शासन के इन प्रहरियों को समान रूप से पाँच महाव्रन, पाँच, समिति, तीन गुप्ति, षट् आवश्यक, प्रतिक्रमण, दस लक्षण धर्म आदि का पालन अनिवार्य बताया गया है।
पद्मा
सर्वश्री
सुव्रता
हरिषेण्म
भाकिता
दशवैकालिक सूत्र में साधु साध्वियों के लिए रात्रि भोजन परित्याग नामक छठे व्रत का उलेलख है। इसके अन्तर्गत रात्रि में इन्हें आहार- पानी आदि लाना तथा सेवन करना वर्जित किया गया है, क्योंकि रात्रि में जीवों की विराधना विशेष होती है। अन्य तीर्थंकरों द्वारा इस व्रत का विधान नहीं किया गया था परन्तु भगवान महावीर के शिष्य वक्रं जड़ थे अतः उनको स्पष्ट वर्जित करना आवश्यक था। सामान्यतया अहिंसा के अन्तर्गत ही रात्रि भोजन का परित्याग आ जाता है।
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कुं सेना
मधुसेना
पूर्वदत्ता
मार्मिणी
रक्षी
मुकोका
चंदना
जिन शासन में श्रमणी व्रत अंगीकार करने के लिए जाति, सम्प्रदाय आदि का कोई भेद भाव नहीं है। किसी भी कुल या जाति की नारी श्रमणीव्रत ग्रहण कर सकती है।
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व्यवहार भाष्य से विदित होता है कि एक गणिका द्वारा भी दीक्षा ली गई थी। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसमें सभी तीर्थंकरों ने नारी को धर्म कार्य सम्पादन की स्वतन्त्रता प्रदान की है, एवं मोक्ष मार्ग पर अनुगमन करने का अधिकार प्रदान किया है जिसके लिए उसे पुरुष का या किसी अन्य का मुखापेक्षी नहीं होना पड़ता है। जिन शासन में । श्रमणी और नारी अपनी धार्मिक क्रियाएं स्वयं सम्पादित कर सकती है। स्थानांग तथा निशीथ भाष्य में कुछ व्यक्तियों के सन्दर्भ में दीक्षा का निषेध किया गया है यथा
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