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दुःख और पीड़ा समतायोग के अभाव में होता है। आज अधिकांश लोगों की शिकायत है -संघर्ष, अभाव, असंतोष, दुःख, परेशानी, अशांति, चिंता, रोग क्लेश आदि क्यों है और इसका हल क्या है? यह सब भावना की विषमता से है और इस सबका एकमात्र हल है - समतायोग को अपनाना ।
आत्मा और शरीर का स्व और पर का भेद विज्ञान समतायोग से होता है किन्तु जिसके जीवन में यह भेद विज्ञान नहीं होता, वह बात बात में शरीर और शरीर से सम्बन्धित जड़ और चेतन पदार्थों एवं अन्य प्राणियों के प्रति मोह, ममत्व, मूर्च्छा, आसक्ति और मद के कारण चिन्तित, दुखित और बेचैन होता रहता है। इन सबका निष्कर्ष यह ह कि समतायोग के बिना इहलौकिक या पारलौकिक कोई भी समस्या हल नहीं की जा सकती। इसलिए मानव जीवन में खासकर साधक जीवन में समतायोग की पद पर अनिवार्य आवश्यकता है।
समतायोग का उद्देश्य - समतायोग का उद्देश्य साधक को समभाव से ओतप्रोत कर देना है। उसके मन, वचन, काया के व्यवहार व अध्यात्म में समतारस भलीभांति आ जाये तो उसे सांसरिक एवं पौद्गलिक वस्तुओं या बातों में रस नहीं रहेगा, उसके आंतरिक जीवन में क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, राग, द्वेष, अज्ञान, दुराग्रह, मिथ्यात्व, अंधश्रद्धा आदि के त्याग की मात्रा बढ़ती जाएगी। भोगों के प्रति विरक्ति हो, आत्मभावों में स्थिरता बढ़े। यही समतायोग का प्रयोजन है, उद्देश्य है।
समतायोग और भेदविज्ञान - समतायोग का मूल उद्देश्य यह है कि शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं को लेकर जो मोहमाया, आसक्ति और मूर्च्छा उत्पन्न होती है एवं उसी को लेकर पाप दोषों की वृद्धि होती है उससे बचना। परिवार धनसम्पत्ति, राज्यसत्ता, जमीन जायदाद आदि भौतिक वस्तुओं को लेकर, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, आदि विकार बढ़ते रहते हैं। फिर उन्हीं के कारण कर्म बंध होते हैं। कर्मबंध से छुटकारा पाने के लिए साधना है समतायोग । समतायोग आत्मा को सशक्त बनाने का प्रयोग है। शरीर और आत्मा के भेदविज्ञान से समतायोग सही सधेगा । भेद विज्ञान के अभाव में व्यक्ति बहिरात्मा बनकर शरीर को ही सर्वस्व समझकर उसी की सार में लगा रहता है। शरीर को वह सशक्त बनाना चाहता है, इसके लिए पौष्टिक दवाइयाँ एवं पदार्थ भी सेवन करता है । व्यायाम भी करता है, परत आत्मिक शक्ति न बढ़ पाने के कारण शारीरिक शक्ति भी नहीं बढ़ पाती। शरीर लक्षी होने से आत्मशक्ति नहीं बढ़ती । आत्मशक्ति के अभाव में वह समत्व की साधना में टिका नहीं रह सकता। जब भी विपरीत परिस्थियों का झंझावत आयेगा वह समत्व से डिग डायेगा। क्योंकि उसको शरीर से जो मोह है । शरीर का बचपन से लेकर बुढ़ापे तक शरीर देखने का अभ्यासु साधक धर्मपालक एवं समत्व साधना के लिए स्वीकृत पथ से डगमगा जायेगा। उसके पैर विपदाओं के घोर बादल देखकर लड़खड़ा जाएंगे। अतः आत्मशक्ति प्राप्त करने के लिए भेदज्ञान आवश्यक है। उसी से साधन प्राप्त होंगे और साधनों से समतायोग में सफलता मिलेगी। आत्मशक्ति प्राप्त होती है या बढ़ायी जा सकती है। आत्मा को सर्वस्व मानकर उसकी अजर, अमरता एवं अविनाशिता पर दृढ़ विश्वास से उसका भेद विज्ञान मूलक सूत्र यही होगा ।
“देह मरे मरे, मैं नहीं मरता, अजर अमर पद मेरा । "
इस प्रकार आत्मा को अजर, अमर, अविनाशी मानने वाला साधक ही आत्मशक्ति पाकर अन्त तक विपत्तियों, संकटों एवं आफतों का समभावपूर्वक सामना कर सकता है और उनसे जूझता हुआ समत्वयोग पर अन्त तक टिका रह सकता है।
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