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द्रव्य के भाव अर्थात् एक तत्व को परिणाम कहा जाता है। परिणाम का अभिप्राय यह है कि अपने स्वरूप का परित्याग न करते हुए एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होना! निष्कर्ष यह है कि द्रव्य परिणामी होता है। वह परिणामन करता है। इसी को दूसरे शब्दों में यो भी कहा जा सकता है कि जैसे द्रव्य में उत्तर पर्याय का उत्पाद और पूर्व पर्याय का विनाश होता रहता है, किन्तु द्रव्य फिर भी अपने स्वरूप में रहता है। उस का स्वरूप का न विनाश होता है और न ही उस में परिवर्तन होता है। १३ उस का स्थिरत्व ज्यों का त्यों विद्यमान है। त्रिकाल व्यापी है। अति स्पष्ट है कि द्रव्य का भाव अर्थात् परिणमन 'परिणाम' है। सहज स्वाभाविक रूप में सदा से होने वाला और सदा होता रहने वाला परिणाम है। यह परिणाम जिस को नष्ट न हो, वह वस्तु नित्य है। १४ और उस की मौलिकता है। पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की मौलिकता स्पर्श, रस, गन्ध, और वर्ण में है। ये चार पुद्गल द्रव्य से एक समय के लिये भी विलग नहीं होते हैं। अतएव वह नित्य है, शाश्वत है। यह एक अलग बात है कि यह मौलिकता रूपान्तरित हो जाती है। अपरिपक्व आम्र हरा है, खट्टा है, और वही पक कर पीला होता है। लेकिन वह वर्णहीन एवं रसहीन नहीं हो सकता है। सुवर्ण की चूड़ी को पिघला कर हार बनाया जाता है। लेकिन सुवर्ण फिर भी ज्यों का त्यों रहेगा है, सर्वथारूपेण नित्य रहेगा। जो संख्या में न्यूनाधिक न हो, अनादि भी हो, अनन्त भी हो और जो न स्वयं को अन्य द्रव्य को रूप में परिवर्तन करे, वह वस्तु अथवा द्रव्य अवस्थित कहलाती है। अनादि अतीत काल में जितने पटल परमाण थे। वर्तमान में उतने ही है। और अनन्त भविष्य में भी उतने ही रहेंगे। पुद्गल द्रव्य की अपनी जो मौलिकता है। वह यथावत् रहेगी। उक्त द्रव्य की अपनी मौलिकता किसी अन्य द्रव्य में कदापि परिवर्तित नहीं होती और नहीं किसी अन्य द्रव्य की मौलिकता पुद्गल नामक द्रव्य में परिवर्तित होती है। यह कथन शत-प्रतिशत यथार्थता लिये हुए है।
___ पुद्गल द्रव्य की एक अद्वितीय विशेषता है उस का रूप १५। यहाँ रूप शब्द का अर्थ है शरीर अर्थात् प्रकृति! जिसमें स्पर्श, रस और गन्ध वर्ण स्वयं सिद्ध १५ है। पुद्गल का छोटा या बड़ा, दृश्य या अदृश्य कोई भी रूप हो, उस में स्पर्श, रस आदि चारों गुण अवश्यभावी है। १७ ऐसा नहीं है कि किसी पदार्थ में केवल रूप या गन्ध आदि पृथक्-पृथक् हो, जहाँ स्पर्श आदि में से कोई एक भी गुण होगा, वहाँ अन्य गुण प्रगट या अप्रगट रूप में अवश्य रूप से विद्यमान होंगे।
पुद्गल सक्रिय है, शक्तिमान है। पुद्गल द्रव्य में क्रिया होती है। इसी क्रिया को परिस्पन्दन कहते हैं। यह परिस्पन्दन अनेक प्रकार का होता है। १८ पुद्गल में यह परिस्पन्दन स्वतः भी होता है और दूसरे पुद्गल या जीव द्रव्य की प्रेरणा से भी होता रहता है। परमाणु की गति क्रिया की एक विशेषता है कि वह १३- क- तत्त्वार्थ सूत्र अ. ५ सूत्र ४१!
ख- प्रज्ञापना परिणाम पद १३, सूत्र १८१ क- भगवती सूत्र, शत-१४ उद्धे ४ सू. ५१२ ख- तत्त्वार्थ सूत्र, अ.५ सू. ३०! उत्तराध्ययन सूत्र अ. २८ गाथा-१२!
सर्वार्थसिद्धि- अ. ५ सू.५ आचार्य पूज्यपाद १७- भगवती सूत्र- श. ७! उद्वे १०! १८- भगवती सूत्र, शतक- ३ उद्वेशा- ३ टीका आचार्य अभय देन!
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