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करो।” (९) अपनी सन्तान की दरिद्रता के कारण हत्या न करो। उनकी हत्या बहुत बड़ा अपराध है। " (१०) किसी को नाहक कत्ल मत करो, (११) किसी ऐसी वस्तु का अनुकरण मत करो, जिसका तुम्हें ज्ञान न हो, (१२) मजदूर उसका श्रम सूखने से पहले मजदूरी दे दो, (१३) अपने नौकर के साथ समानता का व्यवहार करो, जो स्वयं खाओ पहनो वही उसे खिलाओ, पहनाओ (१४) नाप कर दो तो पूरा भर कर दो, तौल कर दो तो तराजू से पूरा तौल कर दो, (१५) अमानत में खयानत ( बेईमानी ) मत करो।'
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वास्तव में ये नैतिकता प्रधान शुभकर्म हैं, परन्तु ईस्लाम धर्म में एक तो पुनर्जन्म को नहीं माना गया, दूसरे, जितना जोर खुदा की इबादत, रसूलों (पैगम्बरों) के प्रति विनम्रता पर दिया गया है, जिसमें नमाज, रोजा, हज और जकात आदि कर्म काण्ड आदि प्रमुख है, उतना जोर इस पर नहीं दिया गया कि अनैतिक कर्मों (आचरणों) से न बचने से यहाँ और परलोक में उसका दुष्फल भोगना पड़ता है। बल्किन 'रोज़े मशहर' में लिखा है कि कयामत (अन्तिम निर्णय के दिन) अपने कर्मों का हिसाब अल्लाह के दरबार में हाजिर हो कर देना होता है, १७ इस कारण व्यक्ति बेखटके जीवबंध, मांसाहार, शिकार, मद्यपान, हत्या, आगजनी, दंगा, आतंक, पशुबलि (कुर्बानी), आदि अनैतिक कृत्यों को, पाप कर्मों को करता रहता है। अन्यथा, अल्लाह की इबादत एवं पूजा करने वाला, अल्लाह की आज्ञाओं को ठुकराता है, उनके अनुसार नहीं चलता है, तब कैसे कहा जाए कि वह खुदा का भक्त या पूजक है ?
दूसरे धर्म सम्प्रदायों आदि से घृणा, विद्वेष की प्रेरणा : पाप कर्म के बीज
दूसरे, ईस्लाम धर्म में मोमिन औ काफिर का भेद करके घृणा और विद्वेष का बीज पहले से ही बो रखा है जो कि अशुभ कर्मबन्ध का कारण है। शुभाशुभ कर्मों का फल स्वयं कर्मों से ही मिल जाता है, खुदा को इस प्रपंच में डालने की जरूरत ही नहीं, खुदा (परमात्मा) की इबादत (भक्ति) करके उससे पाप माफी का फतबा लेने की बात भी न्यायसंगत नहीं है। जैन कर्म विज्ञान मनुष्य मात्र ही नहीं, प्राणिमात्र के प्रति आत्मौपम्य, मैत्रीभाव आदि रखने की बात करता है। साथ ही नैतिकता से स्वर्ग तक की ही प्राप्ति होती है, मोक्ष नहीं, इसीलिए जैन कर्म विज्ञान का स्पष्ट उद्घोष है कि शुद्धकर्म (धर्म) या अकर्म की स्थिति तक पहुँचो ताकि मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष (कर्म मुक्ति) प्राप्त कर सको, अगर वह न हो सके तो कम से कम नैतिक नियमों का पालन करो, ताकि शुभ कर्म द्वारा सुगति प्राप्त कर सको । जैनकर्म विज्ञानः नैतिक संतुष्टिदायक
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एक पाश्चात्य विचारक हॉग महोदय ने कर्म के विषय में एक ही प्रश्न उठाया है कि “क्या कर्म नैतिक रूप से सन्तुष्टि देता है?” १९ इसके उत्तर में जैन कर्म विज्ञान स्पष्ट कहता है कि यदि कोई धर्मनीति की दृष्टि से न्याय-नीति पूर्वक शुभ कर्म (आचरण) करता है, अथवा अहिंसा, सत्य आदि सद्धर्म (शुद्ध कर्म) का आचरण करता है तो वह निष्फल नहीं जाता। उसे देर-सबेर उसका सुफल मिलता ही है ।
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देखें जिनवाणी कर्मसिद्धांत विशेषांक में प्रकाशित 'इस्लाम धर्म में कर्म का स्वरूप' लेख पृ. २१२-२१३ (क) वही, पृ. २०९ (ख) 'रोजे मशहर'
देखें, उत्तराध्ययन सूत्र का चित्तसंमूतीय अध्ययन १३ बी ३२ बी गाथा ।
जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'मसीही धर्म में कर्म की मान्यता' लेख से उद्धत १२०४
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