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जाने का विधान बनाया। गौतमी ने इस पर प्रश्न उठाया, किन्तु बुद्ध ने इसी नियम में अपने धर्म संघ की गरिमा बताते हुए गौतमी को चुप कर दिया। गौतमी का यह प्रश्न ढाई हजार वर्षों के बाद भी आज तक निरुत्तरित खड़ा है।
बौद्ध भिक्षुणी-संघ की अपेक्षा जैन भिक्षुणी-संघ स्वतंत्र विचरण, प्रवचन एवं वर्षावास कर सकता है। किन्तु जैन श्रमण परम्परा में भी भिक्षु संघ की भाँति चिरदीक्षिता श्रमणी द्वारा नवदीक्षिता श्रमण को वन्दन किये जाने का विधान है। गौतमी की तरह जब भी श्रमणी वर्ग द्वारा यह प्रश्न उठाया जाता है कि ऐसा क्यों? तब “इस प्रकार का प्रश्न उठाने वाला अनन्त जन्म मरण की क्रियाओं में वृद्धि करता है।" कहकर उस प्रश्न को वहीं समाप्त कर दिया जाता है अथवा “पुरुष जेष्ठा" कह कर समाधान दे दिया जाता है।
आगम पृष्ठों में योग्य श्रमण के अभाव में उसी श्रमणी को आचार्य बनाने का विधान है, जिसका संयम पर्याय ६० वर्ष हो। जबकि श्रमण-पुरुष के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है “सौ वर्ष की दीक्षिता साध्वी के लिए सब दीक्षित साधु वन्दनीय है। औचित्य से परे पुरुष वर्ग की ओर से बना यह नियम दुराग्रह तथा आधारहीन तर्क है। आगमिक प्रतिपादनों से विपरीत (४) होने पर भी इतनी लम्बी अवधि तक इस परम्परा का टिके रहना पुरुष वर्ग की दुरभिसन्धि का द्योतक है। जिसका अन्धानुकरण वर्तमान का श्रमण वर्ग बड़े शौक से कर रहा है।
नारी वर्ग के प्रति हीनता की भावना रखने वाला समस्त पुरुष वर्ग भिन्न भिन्न परम्पराओं को भूल कर इस बिन्दु पर एक हो गया है, चाहे वह वैदिक, बौद्ध, जैन या अन्य किसी भी परम्परा का क्यों न हो।
साध्वी जीवन के इस सम्पूर्ण चिन्तन के पश्चात् आवश्यकता इस बात की है कि साध्वी समाज स्वयं पर आरोपित अनौचित्य नियमों के प्रति विरोध प्रकट कर अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयासरत बनें। साथ ही साध्वी जीवन की गरिमा एवं महिमा से जग को आलोकित करें जिससे कि इतिहास के पृष्ठों का नव निर्माण हो सके।
४ - नारी मानवता का भविष्य सुरेन्द बोथरा “श्रमणी" खण्ड ५, जयपुर
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