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अतीत की प्रमुख जैन साध्वियाँ
• प्रवर्तक श्री रमेश मुनि
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सुधारस से सराबोर सम्यक् साधना-उपासना की स्रोतस्विनी को अन्तर्मुखी आराधना कहा गया है। सिद्धालय तक पहुँचने का स्पष्ट-स्वच्छ-सरल-सुगम सोपान है। मृत्युंजयी बनने का सबल-उपाय एवं परमात्मा-भाव को प्राप्त करने का उत्तम सत्यथ है।
जिस तरह लोक की अनादिता स्वयं सिद्ध है। उसी तरह साधना महापथ की भी अनादिता अपने आप में सत्रिहित है। जिसके लिए शपथ की या किसी उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है। स्वयं तीर्थकारों की अभिव्यक्ति रही है साधना मार्ग के लिए -
जे के वि गया मोक्खं, जे वि य गच्छंति जे गमिस्संति।
ते सव्वे सामाइय प्वंमावेणं मुणेयव्वं॥ । अर्थात् जो साधक भूतकाल में मोक्ष गये हैं। वर्तमान काल में जाते हैं और भविष्य काल में जायेंगे। यह सामायिक साधना का ही प्रभाव है। ऐसा जानना चाहिये। वस्तुतः मुमुक्षु आत्माओं के लिए साधना का मार्ग सदा सर्वदा उपादेय एवं आचरणीय रहा है।
माना कि साधना के मंगल-पथ पर हर राही नहीं चल पाता, न इसका आचरण ही कर पाता है न इसके गूढ़तम (मोक्ष मार्ग) स्वरूप को सुन समझ पाता है और यह भी आवश्यक नहीं कि प्रत्येक नर-नारी साधना में लगे या साधक बने। क्योंकि साधक बनने के लिए योग्यता की महत्वपूर्ण भूमिका का होना जरूरी है। योग्यता के बिना सम्यक् साधना अभीष्ट फलदायिनी नहीं बन पाती है।
यत्किञ्चित आत्माएँ ही ऐसी होती हैं- जिनकी अन्तरात्मा तीव्रतम-काषायी भावों से उपरत हो जाती हैं। वे अपने आप में जग जाती है। उनके सोचने का तरीका अध्यात्म यथ गामी बन जाता है। जैसे -
“मैं आत्मा हूँ। अनादि अस्तित्व वाला हूँ। जड़ से पृथक हूँ। शाश्वत सिद्ध स्वरूप मेरा निज रूप है। मैं भव्य हूँ। भव्यता मेरा स्वभाव है। सामायिक साधना, साम्यत्व आराधना का कर्तव्य परक अंग है। मुझे चरम सिद्धि के लिए उपासना से जुड़ जाना चाहिये।” ।
इस तरह जिनका चेतना-उपयोग जागृत हो चुका है। शुभाशुभ कर्म-विपाक के जो विज्ञ बन चुके हैं। “पुनरपि जनं पुनरपि मरणं।" के चक्रव्यूह से मुक्त होने की उत्कृष्ट ललक - तमन्ना जिनके अन्तरंग में उछालें भर रही है साथ ही जो सद्बोध से बोधित हो गये हैं। जो संसार की आश्रवमय प्रवृत्ति को विषवत अनुभव करते हैं।
ऐसी आत्माएँ जो उपर्युक्त सम्यक्. तत्व के साथ संलग्न होने को तत्पर है, के भले ही किसी जाति-कुल- परिवार हो, किसी भी मत-पंथ-सम्प्रदाय की, किसी भी देश-प्रांत शहर-गाँव की हो और किसी
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