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गुरुवर्याश्री का तेरह दिन तक भखारा में विराजना हुआ। इस अवधि में धर्म ध्यान का अनुपम ठाट रहा। इसी अवधि में मुझे अपने मन की बात कहने का भी अवसर मिल गया। एक दिन मैंने आपके सम्मुख निवेदन किया- “महाराज सा. मुझे भी आप जैसी साध्वी बना दीजिये। मैं बचपन से ही साध्वी बनना चाहती हूँ।” मेरी बात सुनकर गुरुवर्या श्री शांत रही। कुछ पलों तक वे मेरी ओर देखती रही। मानों वे मेरे चेहरे पर उभरे भावों को गहराई से पढ़ रही हो। उन्होंने कहा- “अभी तुम बहुत छोटी हो । मात्र बारह वर्ष की हो। तुम अभी साध्वी जीवन को समझ नहीं पाई हो। यह मार्ग बड़ा कठिन है। पहले अपना अध्ययन समाप्त कर लो। उसके पश्चात् साधक जीवन और उसकी कठिनाइयों को समझो।”
उनकी इन बातों का मैं क्या उत्तर देती। मेरा मन तो उनके श्री चरणों में रहकर आगे बढ़ने और ज्ञानाभ्यास करने के लिए लालयित था। किन्तु परिवार की ओर से अनुमति नहीं थी। मुझे अधर में झूलती छोड़ कर आपने भखारा से रायपुर की ओर विहार कर दिया।
वार्षिक परीक्षा समाप्त हुई और ग्रीष्मावकाश आरम्भ हुआ। इस समय महासती जी रायपुर में विराजमान थी। मैंने पिता जी से निवेदन किया- मेरी दो महीने की छुट्टी है। मेरी इच्छा है कि मैं इस अवधि में महासती जीन के पास रहकर कुछ ज्ञानार्जन करूं । मुझे उस समय प्रसन्नता हुई जब पिताजी ने अनुमति दे दी। मैं महासती जी की सेवा में दर्शनार्थ पहुंच गई और उनकी सेवा में दत्तचित्त हो गई। गुरुवर्या के सान्निध्य में रहते हुए संयमव्रत अंगीकार करने की मेरी भावना बढ़ने लगी। परिवार के सदस्यों ने मुझे समझाने का बहुत प्रयास किया। उन्होंने कुछ उपाय भी किये किन्तु मैं अटल/अडिग बनी रही। इस पर भी मुझे दीक्षा लेने की अनुमति नहीं मिली। किन्तु गुरुवर्या का सान्निध्य बराबर बना रहा। संवत २०३८ का वर्षावास रायपुर में चल रहा था। इस अवधि में वैराग्यवती बहन लता को परिवार की ओर से दीक्षाव्रत अंगीकार करने की अनुमति मिल गई। अनुमति मिलने पर दीक्षा का मुहुर्त मिगसर शुक्ला तृतीया को दुर्ग में दीक्षोत्सव का आयोजन कर दीक्षा प्रदान करना निश्चित हो गया।
रायपुर से दुर्ग की ओर विहार हुआ मिगसर शुक्ला तृतीया को दुर्ग में विशाल जन समूह की साक्षी में वाणीभूषण श्री रतन मुनि जी म.सा. के मुखारविंद से दीक्षाव्रत अंगीकार कर वैराग्यवती लता बहन महासती श्री चेतनप्रभा जी म.सा. बन गयी और उन्हें परम विदुषी महासती श्री चम्पाकुंवरजी म.सा. की शिष्या घोषित किया गया।
वि. सं. २०३९ का वर्षावास आपने दुर्ग में सम्पन्न किया। इस अवधि में दुर्ग में धर्म ध्यान का ठाट लग गया। प्रवचनों की धूम मच गई। यहां आपके प्रवचनों में जैन और जैनेत्तर सभी धर्मों के लोग आते और प्रवचन श्रवण का लाभ प्राप्त करते। आपके प्रवचनों का अच्छा प्रभाव रहा। वर्षावास की समाप्ति पर आपने दुर्ग से विहार कर दिया। दुर्ग वर्षावास के समय बालाघाट का श्रीसंघ आपकी सेवा में उपस्थित हुआ था और अपने यहां आगामी वर्षावास की स्वीकृति प्रदान करने के लिए निवेदन किया था। उस समय आपने अपनी मर्यादित भाषा में उत्तर दे दिया था। वर्षावास समाप्ति के पश्चात् जब आप विभिन्न ग्राम-नगरों में विचरण कर रहे थे तब भी आपकी सेवा में बालाघाट श्रीसंघ ने उपस्थित होकर अपनी भावना बता दी थी। बालाघाट की ओर से काफी वर्षों से वर्षावास की विनती हो रही थी। यहां यह स्मरणीय है कि बालाघाट में परमविदषी महासती श्री चम्पाकंवर जी म.सा. का ससराल था। जब श्रीसंघ, बालाघाट का आग्रह अधिक होने लगा तो ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आप बालाघाट पधारे । आपके इस विहार में मैं आपके साथ ही थी। बालाघाट में वर्षावास करने की भी स्वीकृति हो चुकी थी। जिस समय आपका
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