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जैसे एक कुशल माली छोटे-छोटे पौधों को जल से सींच कर और रात-दिन उनका संरक्षण कर विशाल वृक्षों के रूप में परिवर्तित कर देता है; वैसे ही श्रद्धेया सद्गुरुणी रूपी माली ने मेरे भावों का सिंचन कर मेरी वैराग्य भावना को विकसित एवं सुदृढ़ किया।
आपके द्वारा ही मैंने ज्ञान का प्रकाश पाया। आपके इस उपकार के प्रति मैं आपकी ऋणी हूँ। आपने मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान की थी। आपका सान्निध्य पाकर मेरे जीवन की काया पलट हो गई । अन्यथा मैं जीवन भर अंधेरी गलियों में भटकती
रहती
परम विदुषी महासती श्री चम्माकुंवर जी म. सा. स्थानथवासी जैन समाज की ही नहीं समस्त जैन समाज की एक ज्योतिर्मय निधि थी। आपके ओजस्वी, तेजस्वी व्यक्तित्व से समाज भली भाँति सुपरिचित था।
आप विलक्षण प्रतिभा की धनी उत्कृष्ठ साधिका थी। आपमें विनय, सरलता, सहज स्नेह कूट-कूट कर भरा हुआ था। मैंने आपके इन गुणों का काफी निकटता से रहते हुए अनुभव किया है। जहाँ अन्तो तहा बाहि, जहा बाहिक वहा अन्तों के। अनुसार आप जैसे अन्दर थे वैसे ही बाहर भी थे। आपके जीवन में बनावटीपन बिलकुल नहीं था। आप स्नेह सौजन्य की साक्षात प्रतिमा थी। आप विदुषी थी किन्तु अपने वैदुष्य का उन्हे किंचित मात्र भी अभिमान नहीं था।
आपने अपने कठोर श्रम से शिक्षा के क्षेत्र में आशातीत प्रगति की थी। आप हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत आदि अनेक भाषाओं की प्रकाण्ड पण्डिता थी। न्याय व दर्शन शास्त्र का उन्होंने गहन एक किया था। जैन सिद्धांताचार्य जैसी उच्च परीक्षाएँ भी आपने उत्तीर्ण की थी।
सामान्यत: यह देखा जाता है कि जो विद्वान होते है, उनमें सेवा का गुण कम ही होता है। लेकिन आप इस बात के अपवाद थे। आपने अपनी गुरुवर्या महासती श्री कानकुंवर जी म.सा की रुग्णावस्था में अथक अनवरत सेवा कर अपनी सेवा भावना का उदाहरण प्रस्तुत किया था। साहुकार पेठ मद्रास में पाँच-छ वर्ष तक महासती जी रुग्णावस्था में रहे, इस अवधि में चिकित्सार्थ चिकित्सालय में भी रहे। उन दिनों आपने दिन या रात की कोई चिंता नहीं की और अपनी गरुवर्या की सेवा में सतत् लगी रही। आपने दिनरात जो सेवा की उसे लेखनी से प्रकट करना कुछ असम्भव प्रतीत होता है। इनता ही कहा जा सकता है कि आप उस अवधि में छाया की भाँति हर समय अपनी गुरुवर्या के साथ लगे रहते थे।
धर्म की प्रभावना हेतु आपकी विशेष रुचि रही। यही कारण रहा कि आपने परम्परागत क्षेत्रों का त्याग कर दूरस्थ क्षेत्रों में विहार किया। जिसके फलस्वरूप मेवाड़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि क्षेत्रों को आपकी ओजस्वी वाणी का लाभ मिला और धर्म के प्रति विशेष रुचि जाग्रत की। आप में अनन्त-अनन्त गुण थे। उन सबका वर्णन में नहीं कर सकती । आज भौतिक रूप से वे हमारी बीच में नहीं है। उनकी भौतिक देह भले ही हमारी आँखों से ओझल हो गया किन्तु उनका यश, गौरव युग-युग तक अमर रहेगा। किसी कवि के शब्दों में तो यही कहेंगे।
तू चुप है लेकिन सदियों तक गूजेंगी सदा साज तेरी।
दुनिया को अंधेरी रातों में ढांढस देगी आवाज तेरि।
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