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जब भी कोई दर्शन करने के लिए आते श्रावक-श्राविका एवं जैनेतर समाज के मध्य शंका का समाधान करते, साक्षात् सरस्वती जी विराजमान मिलते। कोई परिचित अपरिचित हो। वही स्वागत भरी मुस्कान, वही वात्सल्य बिखेरती वाणी। न कोई विशिष्ट न कोई साधारण, न अपना, न पराया। न खाने की सध न पाने की चिन्ता, घंटों एक ही आसन पर धर्मचर्चा, स्वाध्याय में बीत जाते थे। केवल स्वाध्याय। स्वाध्याय ॥ स्वाध्याय॥ व्यर्थ की बात नहीं. निरर्थक बकवास नहीं. समय की बर्बादी नहीं, आपश्री के सान्निध्य में बैठने वाला उठता नहीं। बोलते थे तो मन करता था बोलते ही रहे, मौन करते तो नयन उस प्रभावशाली मखडे की सौम्य मद्रा को निहारते हए तप्त नहीं होते। दीक्षा लेकर सात वर्ष तक लगातार मौन धारण किया था। आपके सान्निध्य से विलग होना जीवन की भारी विवशता है।
कोई भी वृद्ध, तरुण, किशोर, बालक, पुरुष, नारी, गरीब, अमीर, शिक्षित, अशिक्षित आपके द्वार से निराश असंतुष्ट अथवा उपेक्षित हो। अपने को हीन मान कर नहीं लौटा। अपनत्व की तो यहां नदियां बहती थी। वात्सल्य तो बिखरा पड़ा था। शत्रुता का तो नामोनिशान नहीं, मानो विश्व प्रेम मूर्तिमान हो उठा है। कभी भी किसी को निंदा सुनने को नहीं मिलती। मिलेगा पर गुण प्रमोद भाव। पराये छिद्रों का अन्वेषण नहीं। दूसरों के दोष दर्शन के लिए आपके अन्तरचक्षु बन्द मिलते । घृणा और तिरस्कार तो आप जानते ही नहीं थे।
__ प्रवचन शैली जितनी रोचक मनोहारी थी उतनी ही आकर्षक प्रभावशाली भी थी। श्रोता भले ही विद्वान हो या सामान्य जड़मति वाला हो, आपकी वाणी सबके हृदय में सीधी उतर जाती थी। अध्यात्म रस भरी रोचक प्रवचन शैली इतनी सरल, मधुर, मनोज्ञ थी कि अध्यात्म जैसे विषय में भी उपन्यासों जैसी सजीवता मिलती थी। सभी धर्मों का समन्वय करते हुए आपकी ओजस्वी वाणी अपने आप में परिपूर्ण वातावरण आज्ञानुसार सर्वदर्शन समन्वय सागर में स्वतः ही विलीन हो जाती है। मुझे याद है सन् १९८५ का चातुर्मास आंध्रप्रदेश के सिकंदराबाद नगर में था। उस समय वहां आपश्री के पावन सान्निध्य में जैन स्थानक के विशाल प्रागंण में सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन रखा गया था। सभी धर्मों के गुरुजन आये सभी ने अपने अपने विचार रखे, उसके पश्चात् आपके विचार को सुना। सभी धर्मगुरु कहने लगे कि एक साध्वी होकर प्रभावशाली वाणी में सर्वधर्म समन्वय की चर्चा कितने सुन्दर ढंग से की है। इनकी ज्ञान गरिमा धन्य है। कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद वे आपको एक सुन्दर लेम्प भेंट करने लगे, किन्तु पू. गुरुवर्या श्री ने कहा- “हम जैन साध्वी हैं। हम इसका प्रयोग नहीं करते हैं। अतः आप इसे अपने ही पास रखें।" सभी ने शुभकामना व्यक्त की और मंगल पाठ श्रवण कर सभी अपने अपने स्थान पर चले गए। आपके प्रवचन में जो सरलता थी। वह प्रशंसनीय थी। आपने अपने व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास किया था।
ऐसी दिव्य विभूति, महान आत्मा कौन है ? किस घर-कुटुम्ब, माता-पिता को ऐसी अनुपम संतान प्राप्त करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ? किन और कैसी परिस्थिति का सामना कर किस प्रकार यह दीपिका घर की अमूल्य रत्न मानव हृदयों की ज्ञान/प्रकाश पुंज व कोहिनूर बनी । यह जिज्ञासा अस्वाभाविक नहीं हैं।
जन्म एवं बचपन:- राजस्थान का नाम लेते ही मन हर्ष से नाच उठता है। उस भूमि में जहाँ एक ओर संत युग दृष्टाओं का जन्म हुआ है तो दूसरी ओर वीरों की भी खान है। एक कवि की पंक्तियां याद आ जाती हैं
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