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बारहवें दिन जब नामकरण किया जाने लगा परिवार के सदस्यों के परामर्श से एवं बालिका फूल के समान सुकोमल होने के कारण बालिका का नाम चम्पाकुमारी रखा गया। नामकरण के अवसर पर पधारे पंडितजी को मनोवांछित दक्षिणा भी दी गई।
बाल्यकाल - उज्ज्वल गोरा रंग, सुघड़, गोल चेहरा, सुडौल नासिका, तेजस्वी नयन, सुगठित देह, सुसंस्कृत चपलता, मुख पर फैली हुई प्रसन्नता की स्निग्ध छाया । कोई भी संवेदनशील हृदय ऐसा नहीं कि जिसे प्रथम दर्शन में ही यह बाला आकर्षित नहीं कर लें। ऐसी सद्भाग्यशालिनी बाला अपने माता-पिता व परिवार के सब ही सदस्यों की लाड़ली हो इसमें आश्चर्य ही क्या ? शिशु की बाल चेष्टाएं, स्वाभाविक झुकाव, खेलने का ढंग, रहन-सहन आदि प्रायः भावी जीवन का संकेत कर देते हैं । कहावत भी है कि पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं ।
बालिका चम्पाकुमारी फूल जैसी सुकोमल थी । अतः नामकरण उसके अनुरूप ही रहाचम्पाकुमारी | समय के प्रवाह के साथ-साथ बालिका बढ़ने लगी। पूर्व जन्म के संस्कार भी विकसित होने लगे। शैशवावस्था में ही उसकी चपलता, भावुकता, विनयशीलता एवं तीव्रमेधा शक्ति प्रकट होने लगी ।
दीन दुखियों को देख कर आपका हृदय रो उठता था । विपद ग्रस्तों का कष्ट आपके हृदय पर आघात लगता। उदारता का तो पार ही नहीं था । भूख से बिलखते हुए भिखारी बच्चों को आप अपनी स्वयं की थाली का भोजन दे देते और तृप्ति का अनुभव करती। कभी अपने कपड़े भी दे दिया करते थे । आपके ऐसा करने से आपको डांट भी सहनी पड़ती थी । इस पर भी आप दुखियों के दुःख को दूर करने के लिये सदैव तत्पर रहती थी।
मीठी-मीठी मनमोहक बातों में भी आप कुशल थीं । विनय विनम्रता एवं बड़ों की सम्मान सेवा में भी आप सदैव आगे रहती थी। परिवार के सदस्य जो भी कार्य करते, आप सभी का काम में हाथ बंटाया करती । मां, ताई, भुआ में कहीं कोई भेद नहीं। मानो सभी आपकी माताएं थी । आप भी सबके वात्सल्य का केन्द्र बिन्दु थी । परिवार में सबकी दुलारी, सबकी लाड़ली थी।
जहाँ पाँच वर्ष की आयु में बालक-बालिका को अपने शरीर को सम्हालने का भी होश नहीं रहता, वहाँ आप गृहकार्य के अतिरिक्त सामायिक प्रतिक्रमण में भी सबके साथ होती । प्रातः बड़ों को प्रणाम करना • आपका नित्य नियम बन गया था। आपके बाद एक भाई तथा तीन बहनों ने जन्म लिया । उन सभी पर आपका बड़ा स्नेह था किन्तु मोह नहीं ।
जिस प्रकार चम्पा पुष्प की सौरभ से आसपास का समूचा वातावरण सुरभित हो जाता है, उसी प्रकार बालिका चम्पा का सौरभ सुषमा बिखेरती, भोली-भाली सूरत, मधुर मीठी किलकारियों से भरा बचपन का अनूठा आकर्षण, मनोहारी छटा, फुदक-फुदक कर इधर से उधर दौड़ना, सुराणा दम्पती एवं परिवार के सदस्यों के हृदयों को आनन्द से सराबोर कर देता था। नन्हीं बालिका की बाल क्रीड़ायें सबके हृदयों को असीम आनन्द से भर देती थीं ।
पाणिग्रहण - उस समय बाल विवाह का प्रचलन था। जिसका जितनी कम आयु में विवाह हो जाता समाज में उतनी ही अधिक प्रतिष्ठा होती। कभी कभी तो चार वर्ष के बालक-बालिकाओं को ही परिणय बंधन में बाँध दिया जाता था । यहाँ तक कि गर्भकाल में ही वाग्दान हो जाया करता था । प्रचलित परम्परा के अनुसार चम्पाकुमारी का विवाह अल्पवय में ही बालाघाट के श्रीमंत परिवार के बालक रामलालजी
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