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वि.सं. १९९६ में देश में भयंकर दुष्काल पड़ा था। काल की विकराल छाया से पूरा देश अन्न के दानों के लिए त्राहि-त्राहि कर रहा था। यद्यपि दुष्काल के समय सभी को कुछ न कुछ कष्ट व परेशानी होती है, पर सम्पन्न वर्ग को वह कम होती हैं, फिर साधु संत तो भिक्षा-जीवी ठहरे, अनेक घरों से भिक्षा प्राप्त करने में उसकी कष्टानुभूति विशेष नहीं होती। पर आपश्री के संवेदनशील हृदय को तो जनता जनार्दन की पीड़ा ही व्यथित कर रही थी। आपश्री ने संकल्प किया-“जब तक देश में दुष्काल है, मैं धृत, दूध, दही आदि का उपयोग नहीं करूंगा।"
आपश्री की दयावृत्ति ने असर किया, साथी मुनिवरों ने भी त्याग किया। दुष्काल की स्थिति सुधरी तब कहीं जाकर आपश्री ने उक्त वस्तुओं का सेवन किया। जीवन-रेखा
पूज्य स्वामी जी महाराज वास्तव में एक सतयुगी सन्त थे। उनका अन्त:करण शिशु-सा सरल-तरल था, तो मन ओलिया फकीर जैसा वासना-कषाय आदि से मुक्त-विरक्त।
____ आपका जन्म वि.सं. १९४३ में डांसरिया ग्राम (मेवाड़) में हुआ। मेवाड़ की वीरता-भक्ति और तेजस् संस्कार उनके रक्त में घुलमिल गया था। बसन्त पंचमी को आपश्री का जन्म हुआ, और जीवन में सदा ही बसन्ती बहार की तरह प्रसन्न, प्रफुल्ल रहे। आपके पिता . श्री मोतीलाल जी मुणोत (मोतीजी) बड़े ही भद्रपरिणामी थे। माता श्रीमती नन्दूबाई बड़ी धर्मशीला, तेजस्वी महिला थीं। माता की सत्प्रेरणा के कारण ही आपने बचपन में विद्याभ्यास किया, साधु-सन्तों की संगति में पहुंचे और धीरे-धीरे पूर्व जन्म के सद्संस्कारों से प्रेरित होकर एक दिन गुरु चरणों में प्रवजित हो गये।
स्वामी जी ने वि.सं. १९५४ ज्येष्ठ कृष्णा कृष्णा १० को नागौर में पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज के श्रीचरणों में प्रव्रज्या ग्रहण की।
यह एक अद्भूत संयोग की बात हैं कि आपके गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की दीक्षा भी स्वामी श्री फकीरचन्दजी महाराज के हाथों नागौर में ही सम्पन्न हुई थी, और स्वामी जी श्री फकीरचन्द जी महाराज को भी नागौर में स्वामी श्री बुधमलजी महाराज ने दीक्षा प्रदान की थी।
___ आपकी प्रतिभा बड़ी सुतीक्ष्ण तथा ग्रहणशील थी। किसी भी विषय को बड़ी सरलता से व समग्र रूप से ग्रहण करने में आप दक्ष थे। सर्वप्रथम आपश्री ने थोकड़ों का अध्ययन प्रारंभ किया। थोकड़ा-एक प्रकार से गंभीर जैन तत्वज्ञान की सुगम कुंजी है। आपश्री ने बड़ी निपुणता के साथ थोकड़ों का ज्ञान प्राप्त कर फिर आगमों का साक्षात् अध्ययन करने के लिए प्राकृत भाषा का अध्ययन प्रारंभ किया। अनेक सूत्र
कये। सिद्धान्त-चन्द्रिका व्याकरण का ज्ञान प्राप्त कर संस्कत-प्राकत भाषा के अधिकारी विज्ञ बन गये। जैन आगमों के व्याख्या ग्रन्थ, टीकाएं आदि आप श्री ने पूर्ण मनोयोग से पढ़ी।
शिक्षा क्रम पूर्ण करके भी आपश्री अपने आप में संतुष्ट नहीं हुए। अपने लघु गुरु भ्राता- श्री मधुकर मुनि जी के अध्यय-अध्यापन में भी आप श्री बड़ी गहरी रूचि रखते थे। गुरुदेव श्री जोरावरमलजी महाराज भी आपकी सूझ-बूझ व परामर्श का आदर करते व लघु शिष्य श्री मधुकर मुनि जी के विद्याध्ययन की पूर्ण जिम्मेदारी जैसे आपके हाथों में ही सौंप दी थी। आपने बडी जागरूकता व दूरदृष्टि से उनके अध्यापन को मार्गदर्शन दिया व एक सुयोग्तम साथी के रूप में आपका निर्माण किया।
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